धनुर्धर वीर एकलव्य के 7 रहस्य जानकर चौंक जाएंगे आप

बाह, आगरा, उत्तर प्रदेश (Bah, Agra, Uttar Pradesh), एकलव्य मानव संदेश (Eklavya Manav Sandesh) ब्यूरो रामवीर वर्मा की विशेष रिपोर्ट, अप्रैल 2019। धनुर्धर वीर एकलव्य के 7 रहस्य जानकर चौंक जाएंगे आप।
प्राचीन भारत में हुए हजारों धनुर्धरों में सर्वश्रेष्ठ कौन था? यह तय करना मुश्‍किल है। उन्हीं धनुर्धरों में से एक एकलव्य थे। एकलव्य को कुछ लोग शिकारी का पुत्र कहते हैं और कुछ लोग भील का पुत्र। कुछ लोग यह कहकर प्रचारित करते हैं कि शूद्र होने के कारण एकलव्य को गुरु द्रोणाचार्य ने शिक्षा नहीं दी थी। लेकिन यह सभी बातें गलत है।
कौन थे एकलव्य : एकलव्य को लेकर समाज में बहुत तरह की भ्रांतियां इसलिए है क्योंकि लोग महाभारत और पुराण पढ़ते नहीं और जिसने जो लिख दिया उस लिखे हुए की बात को ही सत्य मानते हैं। एक झूठ को जब बार बार प्रचारित किया जाता है तो वह सत्य ही लगने लगता है। सत्य को जानने के लिए तर्क को अलग रखकर धैर्य का परिचय देना होता है। सभी ने महाभारत की इस कथा को तोड़-मरोड़कर अपने-अपने तरीके से लिखा।
     दरअसल, महाभारत का संपूर्ण प्रपंच श्रीकृष्ण की इच्छा से संचालित होता है। पांडव पक्ष के सभी वरिष्ठ लोगों ने अर्जुन को बचाने और उसे महान बनाने के लिए हर तरह का भेद और प्रपंच किया। यदि गुरु द्रोण ने एकलव्य से अंगूठा मांग लिया था तो उसके पीछे भी श्रीकृष्ण की ही इच्छा थी।
महाभारत में एक स्थान पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट किया कि 'तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना निषादराज के पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी, ताकि तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा ना आए।' एकलव्य महान वनवासी भील राज निषादराज के पुत्र थे।
      एकलव्य अपना अंगूठा दक्षिणा में नहीं देते या गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा में नहीं मांगते तो इतिहास में एकलव्य का नाम नहीं होता। एकलव्य को इस बात का कभी दुख नहीं हुआ कि गुरु द्रोणाचार्य ने उनसे अंगूठा मांग लिया। गुरु द्रोणाचार्य भी एक ऋषि थे। वे भलिभांति जानते थे कि उन्हें क्या करना है। वे भीष्मपितामह और अर्जुन को दिए हुए वचन से बंधे थे। गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष धर्मसंकट उत्पन्न हो गया था।
द्रोण का वचन : उन्होंने भीष्मपितामह को वचन दिया था कि वे कौरववंश के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे और अर्जुन को वचन दिया था कि तुमसे बड़ा कोई धनुर्धर नहीं होगा। गुरु द्रोणाराचार्य ने यह नहीं कहा था कि मैंने किसी शूद्र को शिक्षा नहीं देने का वचन दिया है। लेकिन इस घटना को कुछ लोगों के समूह ने गलत अर्थो में लिया और उस अर्थ को बड़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करके समाज में विभाजन किया। इस सामाजिक विभाजन को हवा देने वाले संगठन भी कौन है यह सब जानते हैं। 
      द्रोणाचार्य ने जिस अर्जुन को महान सिद्ध करने के लिए एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया था, उसी अर्जुन के खिलाफ उन्हें युद्ध लड़ना पड़ा और उसी अर्जुन के पुत्र की हत्या का कारण भी वे ही बने थे और उसी अर्जुन के साले के हाथों उनकी मृत्यु को प्राप्त हुए थे। द्रोणाचार्य के चरित्र को समझना अत्यंत कठिन है।
पहला रहस्य...
राजपुत्र थे एकलव्य : महाभारत काल में प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्यों के समान ही थी। निषादराज हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विख्यात थी। राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था। द्रोणभक्त एकलव्य निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र थे। उनकी माता का नाम रानी सुलेखा था।
      उल्लेखनी है कि निषाद नामक एक जाति आज भी भारत में निवास करती है। एकलव्य न तो भील थे और न ही आदिवासी वे निषाद जाति के थे। इस बात का खुलासा होगा अगले पन्नों पर। गौरतलब है कि महाभारत लिखने वाले वेद व्यास किसी ब्राह्मण, छत्रिय जाति से नहीं थे वे भी निषाद जाति से थे। जिसे आजकल सबसे पिछड़ा वर्ग का माना जाता है। महाभारत के आदिपर्व में एकलव्य की कथा आती है।
धृतराष्‍ट्र, पांडु और विदुर की दादी सत्यवती एक निषाद कन्या ही थी। सत्यवती के पुत्रों चित्रवीर और विचित्रवीर्य की पत्नियों ने वेदव्यास के नियोग से दो पुत्रों को जन्म दिया और तीसरा पुत्र दासी का था। अम्बिका के पुत्र धृतराष्ट, अम्बालिका के पुत्र पांडु और दासीपुत्र विदुर थे।

दूसरा रहस्य...
     एकलव्य को क्यों कहा जाता है एकलव्य?
   प्रारंभ में एकलव्य का नाम अभिद्युम्न रखा गया था। प्राय: लोग उसे अभय नाम से ही बुलाते थे। पांच वर्ष की आयु में एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरुकुल में की गई। यह ऐसा गुरुकुल था जहां सभी जाति और समाज के उच्चवर्ग के लोग पढ़ते थे।
एकलव्य का जिस तरह चित्रण किया जाता है, वह उस तरह के नहीं थे। वे एक राजपुत्र थे और उनके पिता की कौरवों के राज्य में प्रतिष्ठा थी। बालपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में बालक की लय, लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरु ने बालक का नाम 'एकलव्य' रख दिया था। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया।
     एक बार पुलक मुनि ने जब एकलव्य का आत्मविश्वास और धनुष बाण को सिखने की उसकी लगन को देखा तो उन्होंने उनके पिता निषादराज हिरण्यधनु से कहा कि उनका पुत्र बेहतरीन धनुर्धर बनने के काबिल है, इसे सही दीक्षा दिलवाने का प्रयास करना चाहिए। पुलक मुनि की बात से प्रभावित होकर राजा हिरण्यधनु, अपने पुत्र एकलव्य को द्रोण जैसे महान गुरु के पास ले जाते हैं।

तीसरा रहस्य...
   एकलव्य-द्रोण संवाद :
     उस समय धनुर्विद्या में गुरु द्रोण की ख्याति थी। एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। एकलव्य को अपनी लगन और निष्ठा पर पूर्ण विश्‍वास था।
एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के पास आकर बोले- 'गुरुदेव, मुझे धनुर्विद्या सिखाने की कृपा करें!' तब गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष धर्मसंकट उत्पन्न हुआ क्योंकि उन्होंने भीष्म पितामह को वचन दे दिया था कि वे केवल कौरव कुल के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे और एकलव्य राजकुमार तो थे लेकिन कौरव कुल से नहीं थे। अतः उसे धनुर्विद्या कैसे सिखाऊं?
अतः द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा- 'मैं विवश हूं तुझे धनुर्विद्या नहीं सिखा सकूंगा।'
एकलव्य घर से निश्चय करके निकले थे कि वह केवल गुरु द्रोणाचार्य को ही अपना गुरु बनाऊंगा। द्रोण की ओर से इंनकार करने के बाद हिरण्यधनु तो वापिस अपने राज्य लौट आए लेकिन एकलव्य को द्रोण के सेवक के तौर पर उन्हीं के पास छोड़ गए। द्रोण की ओर से दीक्षा देने की बात नकार देने के बावजूद एकलव्य ने हिम्मत नहीं हारी और जंगल में हीं झोंपड़ी डालकर धनुर्विद्या की प्रैक्टिस करने लगे।
     जब द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को अस्त्र चलाना सिखाते थे तब एकलव्य भी वहीं छिपकर द्रोण की हर बात, हर सीख को सुनते थे। अपने राजकुमार होने के बावजूद एकलव्य एक झौंपड़ी में रहते थे। और जब सभी राज कुमार अपनी प्रैक्टिस बन्द करके आराम करने चले जाते थे तब अरण्य में रहते हुए ही एकलव्य एकांत में तीर चलाना सीखते थे।

चौथा रहस्य..
जब पता चला द्रोणाचार्य को :
एक दिन अभ्यास जल्दी समाप्त हो जाने के कारण कौरववंशी सभी राजकुमार समय से पहले ही लौट गए। ऐसे में एकलव्य को धनुष चलाने का एक अदद मौका मिल गया। लेकिन अफसोस उनके अचूक निशाने को दुर्योधन ने देख लिया और द्रोणाचार्य को इस बात की जानकारी दी। द्रोणाचार्य ने एकलव्य को वहां से चले जाने को कहा। हताश-निराश एकलव्य अपने महल की ओर रुख कर गये, लेकिन रास्ते में उसने सोचा कि वह घर जाकर क्या करेगा, इसलिए बीच में ही एक आदिवासी बस्ती में ठहर गये। एकलव्य ने आदिवासी सरदार को अपना परिचय दिया और कहा कि वह यहां रहकर धनुष विद्या का अभ्यास करना चाहते हैं। सरदार ने प्रसन्नतापूर्वक एकलव्य को अनुमति दे दी। आदिवासियों या भीलों के बीच रहने के कारण एकलव्य को शिकारी या भील जाति का मान लिया गया।
    एकलव्य ने आदिवासियों के बीच रहकर वहां गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाई और मूर्ति की ओर एकटक देखकर ध्यान करके उसी से प्रेरणा लेकर वह धनुर्विद्या सीखने लगे। मन की एकाग्रता तथा गुरुभक्ति के कारण उन्हें उस मूर्ति से प्रेरणा मिलने लगी और वह धनुर्विद्या में बहुत आगे बढ़ गये।
समय बीतता गया और कौरव वंश के अन्य बालकों, कौरव और पांडवों के साथ-साथ एकलव्य भी युवा हो गये।     
    द्रोणाचार्य ने बचपन में ही अर्जुन को यह वचन दिया था कि उससे बेहतर धनुर्धर इस ब्रह्मांड में दूसरा नहीं होगा। लेकिन एक दिन द्रोण और अर्जुन, दोनों की ही यह गलतफहमी दूर हो गई, जब उन्होंने एकलव्य को धनुष चलाते हुए देखा।

पांचवां रहस्य...
राजकुमारों का कुत्ता :
    एक बार गुरु द्रोणाचार्य, पांडव एवं कौरव को लेकर धनुर्विद्या का प्रयोग करने अरण्य में आए। उनके साथ एक कुत्ता भी था, जो थोड़ा आगे निकल गया। कुत्ता वहीं पहुंचा जहां एकलव्य अपनी धनुर्विद्या की प्रैक्टिस कर रहे थे। एकलव्य के खुले बाल एवं फटे कपड़े देखकर कुत्ता भौंकने लगा।
एकलव्य ने कुत्ते को लगे नहीं, चोट न पहुंचे और उसका भौंकना बंद हो जाए इस ढंग से सात बाण उसके मुंह में थमा दिए। कुत्ता वापिस वहां गया, जहां गुरु द्रोणाचार्य के साथ पांडव और कौरव थे। (यह स्थान उत्तर प्रदेश के जनपद गौतम बुद्ध नगर के दनकौर से बुलंदशहर जनपद के सिकंदराबाद रोड पर या दनकौर स्टेशन रोड पर आज भी सतही है और आज वहाँ पर बसे हुए गांव का नाम मुँह फाड़ गांव कहलाता है।)
    तब अर्जुन ने कुत्ते को देखकर कहा- गुरुदेव, यह विद्या तो मैं भी नहीं जानता। यह कैसे संभव हुआ? आपने तो कहा था कि मेरी बराबरी का दूसरा कोई धनुर्धारी नहीं होगा, किंतु ऐसी विद्या तो मुझे भी नहीं आती।'
द्रोणाचार्य ने आगे जाकर देखा तो वहां निषाद राज महाराजा हिरण्यधनु के पुत्र गुरुभक्त एकलव्य थे।
द्रोणाचार्य ने पूछा- 'बेटा! यह विद्या कहां से सीखी तुमने?'
एकलव्य- 'गुरुदेव! आपकी ही कृपा से सीख रहा हूं।'
द्रोणाचार्य तो वचन दे चुके थे कि अर्जुन की बराबरी का धनुर्धर दूसरा कोई न होगा। किंतु यह तो आगे निकल गया। अब गुरु द्रोणाचार्य के लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया था।
एकलव्य की प्रतिभा को देखकर द्रोणाचार्य संकट में पड़ गए। लेकिन अचानक उन्हें एक युक्ति समझ में आई और उन्होंने कहा- 'मेरी मूर्ति को सामने रखकर तुमने धनुर्विद्या तो सीख ली, किंतु मेरी गुरुदक्षिणा कौन देगा?'
एकलव्य ने कहा- 'गुरुदेव, जो आप मांगें?'
द्रोणाचार्य ने कहा- तुम्हें मुझे दाएं हाथ का अंगूठा गुरुदक्षिणा में देना होगा।' उन्होंने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में एकलव्य के दाएं हाथ का अंगूठा इसलिए मांगा ताकि वे कभी धनुष चला ना पाए।
     एकलव्य ने एक पल भी विचार किए बिना अपने दाएं हाथ का अंगूठा काटकर गुरुदेव के चरणों में अर्पण कर दिया। धन्य है एकलव्य जो गुरुमूर्ति से प्रेरणा पाकर धनुर्विद्या में सफल हुए और गुरुदक्षिणा देकर दुनिया को अपने साहस, त्याग और समर्पण का परिचय दिया। आज भी ऐसे साहसी धनुर्धर एकलव्य को उसकी गुरुनिष्ठा और गुरुभक्ति के लिए याद किया जाता है।
इस संवाद को इस तरह समझे...
एकलव्य द्रोणाचार्य संवाद:
द्रोणाचार्य:- किसके शिष्य हो?
एकलव्य:- गुरु द्रोणाचार्य का।
द्रोणाचार्य:- किन्तु मेने तो तुम्हें कोई शिक्षा नहीं दी।
एकलव्य:- किन्तु मेने तो आप ही को गुरु माना है।
द्रोणाचार्य:- किसके पुत्र हो?
एकलव्य:- निषात् राज भिल्ल राजा का।
द्रोणाचार्य:- कौन वह जरासंघ की सेना का सेनापति?
एकलव्य:- जी हां गुरुदेव।
द्रोणाचार्य:- इतनी योग्यता प्राप्ति के बाद तुम कहां जाओगे?
एकलव्य:- मैं अपने पिता के साथ जरासंघ की सेना का नेतृत्व करूंगा।
द्रोणाचार्य:- तुम ये जानते हो जरासंघ मानवता का शत्रु है? नर पिशाच है?
एकलव्य:- जी गुरुदेव! मैं फिर भी वहीं जाऊंगा।
द्रोणाचार्य:- ओह!  तुमने मुझे गुरु माना है, तो तुम्हें मुझे गुरुदक्षिणा देनी पड़ेगी।
एकलव्य:- मैं तैयार हूं।
द्रोणाचार्य:- अपने दांये हाथ का अंगूठा मुझे दे दो।
एकलव्य:- जो आज्ञा (एकलव्य वैसा ही करते हैं)
 (जिस स्थान पर द्रौणाचार्य ने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगूठा मांगा था वह स्थान आज दनकौर के नाम से प्रशिद्ध है और आज भी वहाँ द्रौणाचार्य आश्रम बना हुआ है, जिसके मंदिर में द्रौणाचार्य की मूर्ति लगी हुई है और बाहर एकलव्य की मूर्ति लगी हुई है। वहाँ एक तालाब भी बना हुआ है और जिस पत्थर पर रखकर एकलव्य ने अपना अंगूठा काटा था वह भी वहाँ रखा हुआ है। दनकौर जनपद गौतम बुद्ध नगर के अंतर्गत आता है।)
     इसके बाद जाते समय गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को दांए हाथ की तर्जनी और मध्यमा दो अंगुलियों को दिखाते हुये संकेत दिया कि बाण दो अंगुलियों से भी चलाया जा सकता है। यदि युद्ध में अंगुठा कट गया तो क्या युद्ध स्थल छोड़ कर भाग जाओगे। परिणाम एकलव्य ने पुन: अभ्यास किया और पुन: पूर्ववत् दक्षता प्राप्त कर ली।
     प्रश्न यही उठता है कि अन्ततोगत्वा अंगूठा कटवाने का उद्देश्य क्या रहा? तो इसके समाधान हेतु यह समझना होगा कि वह किसके पुत्र थे? वह निषात् राज हिरण्यधनु भिल्ल् के पुत्र थे। जोकि जरासंघ की सेना के सेना​पति भी थे। वह जरासंघ जो कि अत्यन्त अत्याचारी, क्रूर एवं श्रीकृष्ण का शत्रु था। उसने अपने बल से आसपास के कई राजाओं को बन्दी बना लिया था। ऐसे में उसकी क्षमता में वृद्धि होने का अर्थ है आर्य जाति के लिए संकट को बढ़ाना। इसीलिए उसका अंगूठा कटवाया।
अर्जुन ने युद्ध में दिव्यास्त्रों का प्रयोग नहीं करने का संकल्प लिया ऐसे में उस कुरूक्षेत्र में लौकिक शस्त्रों में अर्जुन से अधिक ज्ञाता व सामर्थ्यशाली स्वयं भगवान् कृष्ण थे और दूसरे थे एकलव्य। एकलव्य अपने गुरु द्रोणाचार्य के प्रति क्रोध का भाव रखते हुए कौरवों के पक्ष में लड़े। जबकि वह जिस सेना का सेनापति बन सकते थे वह थी

छठा रहस्य...
आधुनिक तिरंदाजी के जनक :
   कुमार एकलव्य अंगूठा बलिदान करने के बाद पिता हिरण्यधनु के पास चले जाते हैं। एकलव्य अपने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या में पुन: दक्षता प्राप्त कर लेते हैं। आज के युग में आयोजित होने वाली सभी तीरंदाजी प्रतियोगिताओं में अंगूठे का प्रयोग नहीं होता है, अत: एकलव्य को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहना उचित होगा।
   पिता की मृत्यु के बाद एकलव्य श्रृंगबेर राज्य के शासक बनते हैं और अमात्य परिषद की मंत्रणा से वह न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद जाति के लोगों की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित करते हैं और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार भी करते हैं।

सातवां रहस्य...
यादव सेना को हराया था एकलव्य ने :
    एकलव्य का राज्य इलाहाबाद के श्रंगवेरपुर से लेकर गुजरात के कच्छ तक फैला हुआ था। जब एकलव्य दनकौर में रहकर अपनी धनुर्विद्या सीखते थे तब कृष्ण अपनी गायों को चराते घूमते रहते थे और इसी बीच इनकी मुलाकात होती रहती थी, जो एक मित्रता में बदल गई थी। जब मथुरा पर जरासंध ने आक्रमण किया था तब कृष्ण भारी संकट में पड़ गए थे। अब जब उनका राज्य जरासंध ने छीन लिया था तब उनके पास अपने रहने की भी जगह नहीं बची थी। तब कृष्ण ने अपने मित्र एकलव्य के यहाँ शरण मांगी थी। तब अपनी मित्रता के कारण एकलव्य ने कृष्ण को अपने राज्य के सुदूर में समुद्र में स्थित एक द्वारका नाम के टापू को श्री कृष्ण को दान में देकर रहने की व्यवस्था की थी। जब कृष्ण मथुरा से द्वारका जा रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक अंगूठा विहीन राजा एकलव्य का इतना बड़ा साम्राज्य है, यह किसी अचंभे से कम नहीं है। एक दिन श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम ने एकलव्य को अकेला देख कर उनकी हत्या के उद्देश्य से आक्रमण कर दिया। एकलव्य ने भी अपनी तीरंदाजी के बल पर यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। इसका उल्लेख विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण में मिलता है। यादव सेना के सफाया होने के बाद यह सूचना जब श्रीकृष्‍ण के पास पहुंचती है तो वे भी एकलव्य को देखने को उत्सुक हो जाते हैं। दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखकर वे समझ जाते हैं कि यह पांडवों और उनकी सेना के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। तब श्रीकृष्‍ण का एकलव्य से युद्ध होता है और धौके से एकलव्य वीरगति को प्राप्त होता है।
    एकलव्य के वीरगति को प्राप्त होने के बाद उसका पुत्र केतुमान सिंहासन पर बैठता है और वह कौरवों की सेना की ओर से पांडवों के खिलाफ लड़ता है। महाभारत युद्ध में वह भीम के हाथ से मारा जाता है।
जय निषाद राज!!जय वीर एकलव्य!!नमो बुद्धाय् !!