अलीगढ़, उत्तर प्रदेश (Aligarh, Uttar Pradesh) महाकवि कबीर ने कहा है-‘सहज सहज सब कोई कहे, सहज न जाने कोइ।’ मेरा मानना है कि जननायक कर्पूरी ठाकुर का संपूर्ण जीवन ही सहजता का पर्याय था। इसी सहजता की वजह से उनका परिवेशगत स्वभाव जन्म से लेकर मृत्यु तक एक-सा बना रहा। बोलचाल, भाषाशैली, खान-पान, रहन-सहन और रीति-नीति आदि सभी क्षेत्रों में उन्होंने ग्रामीण संस्कार और संस्कृति को अपनाए रखा। सभा-सम्मेलनों तथा पार्टी और विधानसभा की बैठकों में भी उन्होंने बड़े से बड़े प्रश्नों पर बोलते समय उन्हीं लोकोक्तियों और मुहावरों का, जो हमारे गांवों और घरों में बोले जाते हैं, सर्वदा इस्तेमाल किया।
कर्पूरी जी का वाणी पर कठोर नियंतण्रथा। वे भाषा के कुशल कारीगर थे। उनका भाषण आडंबररहित, ओजस्वी, उत्साहवर्धक तथा चिंतनपरक होता था। कड़वा से कड़वा सच बोलने के लिए वे इस तरह के शब्दों और वाक्यों को व्यवहार में लेते थे, जिसे सुनकर प्रतिपक्ष तिलमिला तो उठता था, लेकिन यह नहीं कह पाता था कि कर्पूरी जी ने उसे अपमानित किया है। उनकी आवाज बहुत ही खनकदार और चुनौतीपूर्ण होती थी, लेकिन यह उसी हद तक सत्य, संयम और संवेदना से भी भरपूर होती थी। कर्पूरी जी को जब कोई गुमराह करने की कोशिश करता था तो वे जोर से झल्ला उठते थे तथा क्रोध से उनका चेहरा लाल हो उठता था। ऐसे अवसरों पर वे कम ही बोल पाते थे, लेकिन जो नहीं बोल पाते थे, वह सब उनकी आंखों में साफ-साफ झलकने लगता था। फिर भी विषम से विषम परिस्थितियों में भी शिष्टाचार और मर्यादा की लक्ष्मण रेखाओं का उन्होंने कभी भी उल्लंघन नहीं किया।
सामान्य, सरल और सहज जीवनशैली के हिमायती कर्पूरी ठाकुर जी को प्रारंभ से ही सामाजिक और राजनीतिक अंतर्विरोधों से जूझना पड़ा। ये अंतर्विरोध अनोखे थे और विघटनकारी भी। हुआ यह कि आजादी मिलने के साथ ही सत्ता पर कांग्रेस काबिज हो गई। बिहार में कांग्रेस पर ऊंची जातियों का कब्जा था। ये ऊंची जातियां सत्ता का अधिक से अधिक स्वाद चखने के लिए आपस में लड़ने लगीं। पार्टी के बजाय इन जातियों के नाम पर वोट बैंक बनने लगे। सन 1952 के प्रथम आम चुनाव के बाद कांग्रेस के भीतर की कुछ संख्या बहुल पिछड़ी जातियों ने भी अलग से एक गुट बना डाला, जिसका नाम रखा गया ‘त्रिवेणी संघ'।अब यह संघ भी उस महानाटक में सम्मिलित हो गया।
शीघ्र ही इसके बुरे नतीजे सामने आने लगे। संख्याबल, बाहुबल और धनबल की काली ताकतें राजनीति और समाज को नियंत्रित करने लगीं। राजनीतिक दलों का स्वरूप बदलने लगा। निष्ठावान कार्यकर्ता औंधे मुंह गिरने लगे। कर्पूरी जी ने न केवल इस परिस्थिति का डटकर सामना किया, बल्कि इन प्रवृत्तियों का जमकर भंडाफोड़ भी किया। देश भर में कांग्रेस के भीतर और भी कई तरह की बुराइयां पैदा हो चुकी थीं, इसलिए उसे सत्ताच्युत करने के लिए सन 1967 के आम चुनाव में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया गया। कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। सत्ता में आम लोगों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी। कर्पूरी जी उस सरकार में उप मुख्यमंत्री बने। उनका कद ऊंचा हो गया। उसे तब और ऊंचाई मिली जब वे 1977 में जनता पार्टी की विजय के बाद बिहार के मुख्यमंत्री बने।
हुआ यह था कि 1977 के चुनाव में पहली बार राजनीतिक सत्ता पर पिछड़ा वर्ग को निर्णायक बढ़त हासिल हुई थी। मगर प्रशासन-तंत्र पर उनका नियंत्रण नहीं था। इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर-शोर से की जाने लगी। कर्पूरी जी ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उक्त मांग को संविधान सम्मत मानकर एक फॉर्मूला निर्धारित किया और काफी विचार-विमर्श के बाद उसे लागू भी कर दिया। इस पर पक्ष और विपक्ष में थोड़ा बहुत हो-हल्ला भी हुआ। अलग-अलग समूहों ने एक-दूसरे पर जातिवादी होने के आरोप भी लगाए। मगर कर्पूरी जी का व्यक्तित्व निरापद रहा। उनका कद और भी ऊंचा हो गया। अपनी नीति और नीयत की वजह से वे सर्वसमाज के नेता बन गए।
जननायक कर्पूरी जी जीवन भर बिहार के हक की लड़ाई लड़ते रहे। वह खनिज पदार्थ के ‘माल भाड़ा समानीकरण’ का विरोध, खनिजों की रायल्टी वजन के बजाए मूल्य के आधार पर तय कराने तथा पिछड़े बिहार को विशेष पैकेज की मांग के लिए संघर्ष करते रहे। जीवन के अंतिम दिनों में सीतामढ़ी के सोनवरसा विधानसभा क्षेत्र का विधायक रहते हुए उन्होंने श्री देवीलाल द्वारा प्रदान न्याय रथ से बिहार को जगाया। गांधी मैदान पटना में ‘न्याय मार्च रैली’ आयोजित कर केंद्र को चुनौती दी, इसके बाद वे काल के गाल में समा गए। 17 फरवरी 1988 को वे हमारे बीच से सदा के लिए चले गए। माल भाड़ा समानीकरण 1992 में समाप्त हुआ।
कर्पूरी जी का वाणी पर कठोर नियंतण्रथा। वे भाषा के कुशल कारीगर थे। उनका भाषण आडंबररहित, ओजस्वी, उत्साहवर्धक तथा चिंतनपरक होता था। कड़वा से कड़वा सच बोलने के लिए वे इस तरह के शब्दों और वाक्यों को व्यवहार में लेते थे, जिसे सुनकर प्रतिपक्ष तिलमिला तो उठता था, लेकिन यह नहीं कह पाता था कि कर्पूरी जी ने उसे अपमानित किया है। उनकी आवाज बहुत ही खनकदार और चुनौतीपूर्ण होती थी, लेकिन यह उसी हद तक सत्य, संयम और संवेदना से भी भरपूर होती थी। कर्पूरी जी को जब कोई गुमराह करने की कोशिश करता था तो वे जोर से झल्ला उठते थे तथा क्रोध से उनका चेहरा लाल हो उठता था। ऐसे अवसरों पर वे कम ही बोल पाते थे, लेकिन जो नहीं बोल पाते थे, वह सब उनकी आंखों में साफ-साफ झलकने लगता था। फिर भी विषम से विषम परिस्थितियों में भी शिष्टाचार और मर्यादा की लक्ष्मण रेखाओं का उन्होंने कभी भी उल्लंघन नहीं किया।
सामान्य, सरल और सहज जीवनशैली के हिमायती कर्पूरी ठाकुर जी को प्रारंभ से ही सामाजिक और राजनीतिक अंतर्विरोधों से जूझना पड़ा। ये अंतर्विरोध अनोखे थे और विघटनकारी भी। हुआ यह कि आजादी मिलने के साथ ही सत्ता पर कांग्रेस काबिज हो गई। बिहार में कांग्रेस पर ऊंची जातियों का कब्जा था। ये ऊंची जातियां सत्ता का अधिक से अधिक स्वाद चखने के लिए आपस में लड़ने लगीं। पार्टी के बजाय इन जातियों के नाम पर वोट बैंक बनने लगे। सन 1952 के प्रथम आम चुनाव के बाद कांग्रेस के भीतर की कुछ संख्या बहुल पिछड़ी जातियों ने भी अलग से एक गुट बना डाला, जिसका नाम रखा गया ‘त्रिवेणी संघ'।अब यह संघ भी उस महानाटक में सम्मिलित हो गया।
शीघ्र ही इसके बुरे नतीजे सामने आने लगे। संख्याबल, बाहुबल और धनबल की काली ताकतें राजनीति और समाज को नियंत्रित करने लगीं। राजनीतिक दलों का स्वरूप बदलने लगा। निष्ठावान कार्यकर्ता औंधे मुंह गिरने लगे। कर्पूरी जी ने न केवल इस परिस्थिति का डटकर सामना किया, बल्कि इन प्रवृत्तियों का जमकर भंडाफोड़ भी किया। देश भर में कांग्रेस के भीतर और भी कई तरह की बुराइयां पैदा हो चुकी थीं, इसलिए उसे सत्ताच्युत करने के लिए सन 1967 के आम चुनाव में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया गया। कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। सत्ता में आम लोगों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी। कर्पूरी जी उस सरकार में उप मुख्यमंत्री बने। उनका कद ऊंचा हो गया। उसे तब और ऊंचाई मिली जब वे 1977 में जनता पार्टी की विजय के बाद बिहार के मुख्यमंत्री बने।
हुआ यह था कि 1977 के चुनाव में पहली बार राजनीतिक सत्ता पर पिछड़ा वर्ग को निर्णायक बढ़त हासिल हुई थी। मगर प्रशासन-तंत्र पर उनका नियंत्रण नहीं था। इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर-शोर से की जाने लगी। कर्पूरी जी ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उक्त मांग को संविधान सम्मत मानकर एक फॉर्मूला निर्धारित किया और काफी विचार-विमर्श के बाद उसे लागू भी कर दिया। इस पर पक्ष और विपक्ष में थोड़ा बहुत हो-हल्ला भी हुआ। अलग-अलग समूहों ने एक-दूसरे पर जातिवादी होने के आरोप भी लगाए। मगर कर्पूरी जी का व्यक्तित्व निरापद रहा। उनका कद और भी ऊंचा हो गया। अपनी नीति और नीयत की वजह से वे सर्वसमाज के नेता बन गए।
जननायक कर्पूरी जी जीवन भर बिहार के हक की लड़ाई लड़ते रहे। वह खनिज पदार्थ के ‘माल भाड़ा समानीकरण’ का विरोध, खनिजों की रायल्टी वजन के बजाए मूल्य के आधार पर तय कराने तथा पिछड़े बिहार को विशेष पैकेज की मांग के लिए संघर्ष करते रहे। जीवन के अंतिम दिनों में सीतामढ़ी के सोनवरसा विधानसभा क्षेत्र का विधायक रहते हुए उन्होंने श्री देवीलाल द्वारा प्रदान न्याय रथ से बिहार को जगाया। गांधी मैदान पटना में ‘न्याय मार्च रैली’ आयोजित कर केंद्र को चुनौती दी, इसके बाद वे काल के गाल में समा गए। 17 फरवरी 1988 को वे हमारे बीच से सदा के लिए चले गए। माल भाड़ा समानीकरण 1992 में समाप्त हुआ।