माँ

 एकलव्य मानव संदेश की प्रस्तुति-
     माँ
        हम गरीब हैं साहब; लेकिन यकीन मानिए हम गरीब के नहीं, बल्कि मां के गर्भ से जन्म लेते हैं। हम मजदूर हैं लेकिन हमें मजदूर ने नहीं बल्कि मां के मजबूर उदर ने जन्म दिया है। हम रेहड़ी लगाते हैं; लेकिन किसी ठेले या फुटपाथ ने मुझे नहीं बनाया है। पैदा किया है एक माँ ने: जो फुटपाथ पर सोने व रहने को विवश की गई है। हम तांगा हांकते जरूर हैं साहब; परंतु हम किसी घोड़ी से नहीं पैदा हुए हैं। हम बाल काटते हैं; लेकिन किसी कैंची और कंघी ने हमें पैदा नहीं किया। मां के प्रसव पीड़ा ने पैदा किया है। हम इलेक्ट्रीशियन हैं, बिजली का काम करते हैं, आप महानुभावों की सुविधा को ध्यान में रखकर बल्ब, पंखा, झालर, कूलर, एयर कंडीशनर के साथ-साथ हीटर भी फिट करते हैं; ताकि आपके शरीर को किसी तरह की असुविधा न झेलनी पड़े। साहब! थॉमस अल्वा एडिसन की खोज ने हमें नहीं पैदा किया है- मां के गर्भ ने पैदा किया है। हम कसाई हैं:- इस पेशे में शौक से नहीं बल्कि आपके मांसाहार के स्वाद को पूरा करने व अपनी रोटी की व्यवस्था करने की मजबूरी ने कसाई बनने के विकल्प को चुनने पर विवश किया है। हमें न छूरे व न ही हलाल होती मुर्गियां, भेड़ व बकरियों ने पैदा किया है; पैदा तो मां ने ही किया है।
     हम ताड़ी उतारते हैं ताकि आपके मदहोश होने के साधनों में से एक संसाधन की पूर्ति कर सकूँ, परंतु हमें नारियल ने नहीं पैदा किया, मातृशक्ति ने पैदा किया है। हम भट्ठा मजदूर हैं:- ईट पाथने, सुखाने व पकाने का काम करते हैं। जिन महलों में आप आलीशान तरीके से रहते हैं उसकी हर एक ईंट हमारे लहू की कहानी कहती है; परंतु साहब हमें किसी साँचे ने पैदा नहीं किया है। पैदा तो किया है मेरी माँ ने ही। हम सब्जी विक्रेता हैं:- मंडियों से फल, सब्जियां लाकर आपके दरवाजे तक पहुंचाते हैं ताकि आपके स्वास्थ्य के साथ-साथ आपकी ज़वानी भी ताउम्र बनी रहे। लेकिन हमें किसी सब्जी, फल व मंडी ने नहीं पैदा किया है माई बाप! हमें तो जले खून और गली हड्डियों के ढांचे वाली मां ने पैदा किया है। हम ठेली व ठेला खींचते हैं; आपके घर को सजाने संवारने के भारी-भरकम सामानों को कलेजे के बल खींचकर आपके दरवाज़े तक पहुंचाते हैं; हमें किसी सरिया, गिट्टी, सीमेंट रेत व मार्बल नै पैदा नहीं किया है; पैदा तो मां ने ही किया है। हम अखबार बेचते हैं, हाॅकर हैं, आपको खबरों से अवगत कराने के लिए रात्रि से सक्रिय होकर सुबह 6-7 बजे तक अखबार आपके दरवाजे पर फेंक देते हैं; ताकि आंख मलते-मलते अखबार आपकी नजरों के सामने हो। हमें किसी प्रिंटिंग प्रेस साहित्यकार या पत्रकार की कलम ने जन्म नहीं दिया है, जन्म तो मां ने ही दिया है। हम लकड़ी व लोहा मजदूर हैं, आरा मशीन पर लकड़ी चीरते हैं, लोहे से कृषि हेतु औजार व लकड़ियों से आपके लिए सजावटी साजो-सामान बनाते हैं; परंतु हमें न तो लकड़ी, आरा मशीन, कोयला और न ही भाथी ने पैदा किया है। जन्म तो हमें मां ही देती है।
     आपको लगता है हम खेती करने वाले, फूल उगाने वाले, सब्जी उगाने वाले, अनाज पैदा करने वाले सभी खेतिहर मजदूरों की बात नहीं कर रहे हैं। यदि आप ऐसा सोच रहे हैं तब आप बिल्कुल गलत है; हम वही हैं जो खेतों की जुताई-बुवाई करने के बाद शहरों में कुछ पैसा कमाने की लालच में आ जाते है, ताकि अन्न के साथ कुछ पैसा भी कमा सकूं! बच्चों का शादी-ब्याह कर सकूँ! हम महल अटारी थोड़े ही बनाने जा रहें हैं। हमारे बच्चे इतने भोले हैं कि सपने देखना भी जानते। जिस बिल्डिंग में हम काम करते हैं वहां से गुजरते हुये एक वास्तविक सज्जन पुरुष ने हमारे बच्चों से एकबार पूछ लिया कि तुम्हारे बाप इसमें काम करते हैं? उन्होंने कहा हाँ:- फिर उस भद्र मानव ने पूछ लिया यदि यह बिल्डिंग तुम्हारे बाप को दे दी जाए तब तुम क्या करोगे? बच्चों ने जवाब दिया झाड़ू और पोछा लगाऊँगा। हम मजदूर हैं साहब हमसे घबराने की जरूरत नहीं है ।
     हम अनाड़ियों की सोच यही कहती है कि माँएं ही सभी को जन्म देती हैं। सभी अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार बच्चों का पालन-पोषण करती हैं। किसी को मां प्रिय है कि नहीं हमें तो अतिप्रिय है। हमारी मां ने हर पौष्टिकता की कमी को अपनी दूध से पूरा किया है। हममें से हर किसी ने 3-5 वर्ष तक अपनी-अपनी मां का दूध पिया है। हमें ज्ञात नही परन्तु शायद हमें मोटा-ताजा देखने के लिए माँ हमें दूध पिलाने को कृत संकल्पित होगी:- यही दूध मां को हड्डियों के ढांचे में बदल देता होगा। होगा कोई जो डिब्बे का दूध, सेरेलक, फैरेक्स खाकर पला बढ़ा हो; परंतु हम तो मां के स्तनों से निकलने वाले दूध से ही पले-बढ़े हैं। हमारी मजबूत हड्डियां, शारीरिक बल, मेहनत व मजदूरी करने की क्षमता प्रमाणित करती है कि हां हमने पिया है मां का दूध।
         हां! यह सच है कि गंवार होने की वजह से हम यह नहीं समझ पाए कि स्तन का दूध और डिब्बे का दूध पीने से व्यक्ति के चरित्र में इतने फासले आ सकते हैं! जहां स्तन का दूध पीने वाले मेहनतकश, ईमानदार व सच्चे इंसान होते हैं; वहीं डिब्बे का दूध पीने वाले शातिर, कामचोर वह इंसानों की शक्ल में हैवान होते हैं।
   मां हमें भी याद आती है साहब! हमारी मजबूरियां चार से छह महीने मां से दूर करती हैं। दिन में हर तकलीफ में मां याद आती है, अंदर-अंदर रोते-बिलखते हैं व अकेले में फूट-फूटकर रोते हैं हम; परंतु किसी के सामने यह तकलीफ कभी झलकने नहीं देते। यह होती है मां के दूध में ताकत। हमारा वश चले तब हम माँ को हमेशा कंधे पर बैठाकर रखें। काश! ऐसा संभव होता... कुछ लोग होंगे साहब! जिनको लगता होगा कि यदि उनके साथ माँ रहेंगी तब उनकी अय्याशियों में खलल पड़ जाएगा; फलस्वरूप:- मां को पास फटकने ही नहीं देते, लेकिन राजनीतिक लाभ-हानि का गुणा-भाग कर प्रेस कांफ्रेस में ऐसा भोकार छोड़कर रोते हैं जैसे मां के अभाव में उनके प्राण ही निकले जा रहे हैं। यही होती है उत्कृष्ट अभिनय प्रस्तुति एक छद्म पालनहार की।
       यकीन माने साहब! देश के विभिन्न शहरों में फंसे 15 करोड़ से अधिक हम लोग वही हैं जो माँओं के लिए तड़प रहे हैं और माँओं की आंखें हम बच्चों को सही सलामत देखने के लिए पथरा जा रही हैं। डिब्बे का दूध पीने वाले बच्चों को उनकी माँओं से मिलाने के लिए जब 68000 लोगों को दुनिया के कोने कोने से स्पेशल हवाई जहाजों को भेजकर बुला सकते हैं; तब हम स्तन का दूध पीने वाले और देश की प्रगति में अपने लहू को पसीने के रूप बहाने वाले लोगों को 3×6 फीट, 6×6 फीट, 4×6 फीट व 6×8 फीट के कमरों में भूसे की तरह भरकर मारने का उपक्रम क्यों कर रहे हैं साहब? आप जैसे डिब्बे का दूध पीने वालों को शायद यह ज्ञात नहीं होगा कि मुंबई जैसे शहर में 6×8 फीट के एक कमरे में 6-7 लोग रहते हैं। कोई दिन की ड्यूटी करता है तो कोई रात की। इस लाॅकडाउन ने सब को एक साथ रहने पर मजबूर कर दिया है।
कोई तो बताए हम सरकार के सोशल डिस्टेंसिंग के आदेश का पालन करें तो कैसे?
 दिहाड़ी के अभाव में पेट भरे तो कैसे?
  जीवित रहे तो कैसे?
  क्या सोमालिया की तरह हम भी अपने बच्चों को मार कर खाना शुरू कर दें?
  देगा कोई इसका जवाब या फिर हमेशा हमें ही बैल समझ जुतने के लिए आदेश देता रहेगा?
 गौतम राणे सागर

(सोशल मीडिया सेसाभार लिया गया है)