भारतीय शिक्षा बनाम शूद्र समाज
संकलनकर्ता एवं लेखक - साहबसिंह धनगर भैयाजी
नोट:- यह लेख भारतीय शिक्षा व्यवस्था से जुड़ा हुआ है । इसलिए लेख कुछ लंबा है । लेकिन एससी, एसटी, ओबीसी एवं अल्पसंख्यक समाज के लोगों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए ।
साथियों ,
भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है। भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिकता पर आधारित थी। शिक्षा, मुक्ति एवं आत्मबोध के साधन के रूप में थी । शिक्षा व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि धर्म के लिए थी। प्राचीन काल में शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को था। विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा को प्रकाशस्रोत, अंतर्दृष्टि, अंतरज्योति, ज्ञानचक्षु और तीसरा नेत्र उपमाओं से विभूषित किया है। बौद्धों और जैनों की शिक्षा पद्धति भी इसी प्रकार की थी।
मध्य काल में भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा। फारसी जानने वाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाने लगे। अपने को हिंदू कहने वाले लोग अरबी और फारसी पढ़ने लगे। बादशाहों और अन्य शासकों की व्यक्तिगत रूचि के अनुसार इस्लामी आधार पर शिक्षा दी जाने लगी।
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों डाली गई। सन् 1781 में कोलकाता में कोलकाता मदरसा व 1792 में बनारस में संस्कृत कालेज स्थापित किए गए। 1835 में लॉर्ड मैकाले और राजा राममोहन राय के समर्थन से लॉर्ड बेंटिक ने निश्चय किया कि प्राच्य शिक्षा चलती रहें, परंतु अंग्रेजी और पश्चिमी विषयों के अध्यापन और अध्ययन पर जोर दिया जाए। पाश्चात्य रीति से शिक्षित भारतीयों की आर्थिक स्थिति सुधरते देख जनता इधर झुकने लगी। अंग्रेजी जानने वाले लोगों को सरकारी नौकरी दिए जाने की घोषणा हो गई थी। स्त्रियों की दशा सुधारने एवं उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा फुले ने देश में पहला स्कूल सन् 1848 में खोला। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली, तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह कार्य करके अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को इस योग्य बना दिया। 1853 में शिक्षा की प्रगति की जांच के लिए एक समिति बनी। जिसमें संस्कृत और फारसी का ज्ञान आवश्यक समझा गया। प्रांतों में शिक्षा विभाग, अध्यापक प्रशिक्षण, नारी शिक्षा इत्यादि की सिफारिश की गई। 1882 में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में भारतीय शिक्षा आयोग का गठन हुआ। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रहा। देश की उन्नति चाहने वाले भारतीयों में व्यापक और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता का बोध होने लगा। 1870 में बाल गंगाधर तिलक और उनके सहयोगियों द्वारा पूना में फर्ग्युसन कॉलेज, 1886 में आर्य समाज द्वारा लाहौर में दयानंद एंगलो वेदिक कॉलेज और 1898 में काशी में श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा सेंट्रल हिंदू कॉलेज स्थापित किए गए। 1894 में कोल्हापुर रियासत के राजा छत्रपति शाहू जी महाराज ने दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के लिए विद्यालय खोलें। छात्रावास बनवाएं। 1894 से 1922 तक पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाएं खोलने की पहल की। 1901 में लॉर्ड कर्जन ने शिमला में एक शिक्षा सम्मेलन किया था। कर्जन का मत था कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही दी जानी चाहिए। विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा की उन्नति के लिए 1902 में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग का गठन हुआ। 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय कानून बना। 1921 से नए शासन सुधार कानून के अनुसार सभी प्रांतों में शिक्षा, भारतीय मंत्रियों के अधिकार में आ गई। अगले शासन सुधार के लिए साइमन आयोग का गठन किया गया। कि वह प्रचलित शिक्षा के गुण व दोष का विवेचन करें तथा सुधार के लिए सिफारिश प्रस्तुत करें।
ब्रिटिश काल में शिक्षा में मिशनरियों का प्रवेश हुआ। इस काल में महत्वपूर्ण शिक्षा दस्तावेज में मैकाले का घोषणा पत्र 1835, वुड का घोषणा पत्र 1854, हंटर आयोग 1882 सम्मलित है। इस काल में शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजों के राज्य के शासन संबंधी हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। जब 1860 में भारत के शासन को ईस्ट इंडिया कंपनी से छीनकर रानी विक्टोरिया के अधीन किया गया, तब मैंकाले को भारत में अंग्रेजों के शासन को मजबूत बनाने के लिए आवश्यक नीतियां सुझाने का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया था। मैकाले ने निष्कर्ष निकाला कि जब तक हिंदू, मुसलमानों के बीच वैमनस्यता नहीं होगी तथा वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत संचालित समाज की एकता नहीं टूटेगी, तब तक भारत पर अंग्रेजों का शासन मजबूत नहीं होगा। मैकाले की शिक्षा नीति का लक्ष्य था कि संस्कृत, फारसी तथा लोक भाषाओं के वर्चस्व को तोड़कर अंग्रेजी का वर्चस्व कायम करना। साथ ही सरकार चलाने के लिए देशी अंग्रेजों को तैयार करना। इसके अलावा पश्चिमी सभ्यता एवं जीवन पद्धति के प्रति आकर्षण पैदा करना भी मैकाले का लक्ष्य था। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में ईसाई मिशनरियों ने ही सर्वप्रथम मैकाले की शिक्षा नीति को लागू किया। गांधी जी द्वारा प्रतिपादित बुनियादी शिक्षा का महत्वपूर्ण लक्ष्य शिल्प आधारित शिक्षा द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास कर उसे आत्मनिर्भर आदर्श नागरिक बनाना था। मैकाले ने सुझाव दिया कि अंग्रेजी सीखने से ही विकास संभव है।
स्वतंत्रता के बाद राधाकृष्ण आयोग 1948 - 49, माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग) 1953, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग 1953, कोठारी शिक्षा आयोग 1964-66, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 आदि के द्वारा भारतीय शिक्षा व्यवस्था को समय-समय पर तथाकथित सही दिशा देने की कोशिश की गई।
प्राचीन (मनुवादी) काल में शूद्र समाज को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं था। मध्यकाल में मुगलों ने राज्य करने एवं धर्म प्रचार के लिए अपनी भाषा को पढ़ना - लिखना ही शिक्षा समझा। अंग्रेजों के शासन काल में अंग्रेजी पढ़ना अनिवार्य किया गया। ताकि काले (देशी) अंग्रेज भारतीय नागरिकों में से ही पैदा होते रहें और अंग्रेजी हुकूमत के कार्य सुचारू रूप से उनके मुताबिक चलते रहे। आजाद भारत में भी लॉर्ड मैकाले द्वारा स्थापित शिक्षा व्यवस्था ही लागू रही। लेकिन संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार दिया गया। तो मनुवादियों ने इसकी काट के लिए अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए सी.बी.एस.ई.व आई.सी.एस.ई. पद्धति के अपने स्कूल, कालेज स्थापित कर लिए। अर्थात प्राचीन काल से लेकर अब तक जिन्होंने भी भारत पर शासन किया, किसी की भी नीयत 90 प्रतिशत शूद्र समाज को शिक्षित करने की नहीं रही। तमाम आयोग, समितियां, नीतियां, स्कूल, कॉलेज, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय खोले गए। लेकिन शूद्र समाज की शिक्षा को सुधारने की उसमें कोई गुंजाइश नहीं थी। कांग्रेस तथा भाजपा मनुवादियों के वंशजों की ही पार्टियां हैं। मनुवादी तो शूद्र समाज को शिक्षित होता देखना कभी पसंद नहीं करता है। इसीलिए तो कांग्रेस तथा भाजपा ने 90 प्रतिशत शुद्र समाज के बच्चों के हाथों में कटोरा - थाली थमाकर भीख मांगने की प्रवृत्ति डालने का कार्य मध्यान्ह भोजन के नाम पर कर रखा है। शुद्र समाज के बच्चों के साथ जो अमानवीय कार्य हो रहे हैं, उसके लिए केवल और केवल करने वाले मनुवादी लोग ही दोषी नहीं हैं, बल्कि शूद्र समाज में से पढ़ लिख कर तैयार हुए डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, वकील, राजनेता भी दोषी हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने दिनांक 29 - 7 - 2020 को कैबिनेट की बैठक में नई शिक्षा नीति का मसौदा रखा। जिसे कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय करने की बात कही गई है। नई शिक्षा नीति में छात्रों को विषय चुनने की छूट का प्रावधान है। अध्यापकों को और अधिक प्रशिक्षित करने की व्यवस्था है। सभी विश्वविद्यालयों के लिए एक प्रवेश परीक्षा होगी, जिससे छात्रों का समय व धन दोनों बचेगा ऐसा कहा गया है। इसके अलावा नई शिक्षा नीति की तमाम विशेषताएं बताई जा रही हैं।
भारतीय संविधान विश्व में उच्च श्रेणी का है। जिसकी आत्मा में समता, स्वतंत्रता, भाईचारा एवं न्याय बसा हुआ है। लेकिन 73 वर्ष की आजादी में दूषित मानसिकता के शासकों द्वारा संविधान की मूल भावना के अनुसार कार्य नहीं किया गया है। जिसकी वजह से देश में 90 प्रतिशत आबादी वाले एससी.एसटी. ओबीसी. और अल्पसंख्यकों के लिए समता, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय सिर्फ और सिर्फ कहने भर की बात रह गई है। यही हश्र फेकू प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा लाई गई नई शिक्षा नीति 2020 का होगा। इससे भी शूद्र समाज को कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। शिक्षा का विषय राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा हुआ है और शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा भी प्राप्त है। यदि मोदी जी की सरकार वास्तव में मन से 90 प्रतिशत शूद्र समाज को शिक्षित करना चाहती है, तो एक शिक्षा नीति की घोषणा करें। भारतीय भाषाओं में पठन-पाठन की घोषणा करें। देश में विद्यमान दोहरी शिक्षा नीति के तहत शिक्षा माफियाओं द्वारा शिक्षा का व्यवसायीकरण करके पूरे देश में शिक्षा की दुकानें चला रखी हैं। इस व्यवसायीकरण को प्रतिबंधित कर शिक्षा का राष्ट्रीयकरण करने की घोषणा करे। सभी छात्रों के पठन-पाठन हेतु लगभग एक समान सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए। कक्षाओं के अनुसार एक समान शिक्षा शुल्क का प्रावधान होना चाहिए। पूरे देश में प्री-प्राइमरी, प्राइमरी, जूनियर, उच्च माध्यमिक, माध्यमिक, कालेज, विश्वविद्यालय के शिक्षकों का कक्षावार ग्रेड निर्धारित कर संबंधितों के एक समान वेतन भत्ते होने चाहिए। छोटे बच्चों के हाथों में थाली-कटोरा थमा कर पोष्टिक आहार, मध्यान्ह भोजन के नाम पर दलिया - खिचड़ी खिलाने से उनके अविकसित मस्तिष्क में भीख मांगने की उत्पन्न हो रही प्रवृत्ति को रोकने के लिए ऐसी दूषित योजनाओं को रोकना चाहिए। यदि यह घोषणाएं मोदी सरकार करती है, तो हम मानेंगे कि आप वास्तव में 90 प्रतिशत शूद्र समाज को शिक्षित करना चाहते हैं। लेकिन यह घोषणाएं मोदी सरकार द्वारा नहीं की जाएंगी। क्योंकि ये 100 प्रतिशत मनुवादी हैं। हम तो जुमलेबाज प्रधानमंत्री की नई शिक्षा नीति 2020 को यही समझेंगे कि भारतीय शिक्षा रूपी पुरानी वस्तु की पैकिंग पर से कांग्रेस का ब्रांड हटाकर नई पैकिंग कर नई शिक्षा नीति 2020 का मोदी ब्रांड चस्पा करके जनता के समक्ष रखा गया है। तथा मनुवादी इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया मोदी ब्रांड की नई शिक्षा नीति की तमाम विशेषताएं रात-दिन बताएगा। शूद्र समाज को सावधान हो जाना चाहिए कि जब प्राचीन काल में मनुवादियों के प्रभाव के कारण शूद्र समाज को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं था। तो आजाद भारत में केंद्र सरकार में कांग्रेस और भाजपा के रूप में 100 प्रतिशत मनुवादियों के ही वंशज शासन कर रहे हैं। वह शूद्र समाज को क्यों शिक्षित होने देंगे ? यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है।
नोट:- यह लेख भारतीय शिक्षा व्यवस्था से जुड़ा हुआ है । इसलिए लेख कुछ लंबा है । लेकिन एससी, एसटी, ओबीसी एवं अल्पसंख्यक समाज के लोगों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए ।
साथियों ,
भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है। भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिकता पर आधारित थी। शिक्षा, मुक्ति एवं आत्मबोध के साधन के रूप में थी । शिक्षा व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि धर्म के लिए थी। प्राचीन काल में शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को था। विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा को प्रकाशस्रोत, अंतर्दृष्टि, अंतरज्योति, ज्ञानचक्षु और तीसरा नेत्र उपमाओं से विभूषित किया है। बौद्धों और जैनों की शिक्षा पद्धति भी इसी प्रकार की थी।
मध्य काल में भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा। फारसी जानने वाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाने लगे। अपने को हिंदू कहने वाले लोग अरबी और फारसी पढ़ने लगे। बादशाहों और अन्य शासकों की व्यक्तिगत रूचि के अनुसार इस्लामी आधार पर शिक्षा दी जाने लगी।
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों डाली गई। सन् 1781 में कोलकाता में कोलकाता मदरसा व 1792 में बनारस में संस्कृत कालेज स्थापित किए गए। 1835 में लॉर्ड मैकाले और राजा राममोहन राय के समर्थन से लॉर्ड बेंटिक ने निश्चय किया कि प्राच्य शिक्षा चलती रहें, परंतु अंग्रेजी और पश्चिमी विषयों के अध्यापन और अध्ययन पर जोर दिया जाए। पाश्चात्य रीति से शिक्षित भारतीयों की आर्थिक स्थिति सुधरते देख जनता इधर झुकने लगी। अंग्रेजी जानने वाले लोगों को सरकारी नौकरी दिए जाने की घोषणा हो गई थी। स्त्रियों की दशा सुधारने एवं उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा फुले ने देश में पहला स्कूल सन् 1848 में खोला। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली, तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह कार्य करके अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को इस योग्य बना दिया। 1853 में शिक्षा की प्रगति की जांच के लिए एक समिति बनी। जिसमें संस्कृत और फारसी का ज्ञान आवश्यक समझा गया। प्रांतों में शिक्षा विभाग, अध्यापक प्रशिक्षण, नारी शिक्षा इत्यादि की सिफारिश की गई। 1882 में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में भारतीय शिक्षा आयोग का गठन हुआ। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रहा। देश की उन्नति चाहने वाले भारतीयों में व्यापक और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता का बोध होने लगा। 1870 में बाल गंगाधर तिलक और उनके सहयोगियों द्वारा पूना में फर्ग्युसन कॉलेज, 1886 में आर्य समाज द्वारा लाहौर में दयानंद एंगलो वेदिक कॉलेज और 1898 में काशी में श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा सेंट्रल हिंदू कॉलेज स्थापित किए गए। 1894 में कोल्हापुर रियासत के राजा छत्रपति शाहू जी महाराज ने दलित और पिछड़ी जाति के लोगों के लिए विद्यालय खोलें। छात्रावास बनवाएं। 1894 से 1922 तक पिछड़ी जातियों समेत समाज के सभी वर्गों के लिए अलग-अलग सरकारी संस्थाएं खोलने की पहल की। 1901 में लॉर्ड कर्जन ने शिमला में एक शिक्षा सम्मेलन किया था। कर्जन का मत था कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही दी जानी चाहिए। विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा की उन्नति के लिए 1902 में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग का गठन हुआ। 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय कानून बना। 1921 से नए शासन सुधार कानून के अनुसार सभी प्रांतों में शिक्षा, भारतीय मंत्रियों के अधिकार में आ गई। अगले शासन सुधार के लिए साइमन आयोग का गठन किया गया। कि वह प्रचलित शिक्षा के गुण व दोष का विवेचन करें तथा सुधार के लिए सिफारिश प्रस्तुत करें।
ब्रिटिश काल में शिक्षा में मिशनरियों का प्रवेश हुआ। इस काल में महत्वपूर्ण शिक्षा दस्तावेज में मैकाले का घोषणा पत्र 1835, वुड का घोषणा पत्र 1854, हंटर आयोग 1882 सम्मलित है। इस काल में शिक्षा का उद्देश्य अंग्रेजों के राज्य के शासन संबंधी हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। जब 1860 में भारत के शासन को ईस्ट इंडिया कंपनी से छीनकर रानी विक्टोरिया के अधीन किया गया, तब मैंकाले को भारत में अंग्रेजों के शासन को मजबूत बनाने के लिए आवश्यक नीतियां सुझाने का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया था। मैकाले ने निष्कर्ष निकाला कि जब तक हिंदू, मुसलमानों के बीच वैमनस्यता नहीं होगी तथा वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत संचालित समाज की एकता नहीं टूटेगी, तब तक भारत पर अंग्रेजों का शासन मजबूत नहीं होगा। मैकाले की शिक्षा नीति का लक्ष्य था कि संस्कृत, फारसी तथा लोक भाषाओं के वर्चस्व को तोड़कर अंग्रेजी का वर्चस्व कायम करना। साथ ही सरकार चलाने के लिए देशी अंग्रेजों को तैयार करना। इसके अलावा पश्चिमी सभ्यता एवं जीवन पद्धति के प्रति आकर्षण पैदा करना भी मैकाले का लक्ष्य था। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में ईसाई मिशनरियों ने ही सर्वप्रथम मैकाले की शिक्षा नीति को लागू किया। गांधी जी द्वारा प्रतिपादित बुनियादी शिक्षा का महत्वपूर्ण लक्ष्य शिल्प आधारित शिक्षा द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास कर उसे आत्मनिर्भर आदर्श नागरिक बनाना था। मैकाले ने सुझाव दिया कि अंग्रेजी सीखने से ही विकास संभव है।
स्वतंत्रता के बाद राधाकृष्ण आयोग 1948 - 49, माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग) 1953, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग 1953, कोठारी शिक्षा आयोग 1964-66, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 आदि के द्वारा भारतीय शिक्षा व्यवस्था को समय-समय पर तथाकथित सही दिशा देने की कोशिश की गई।
प्राचीन (मनुवादी) काल में शूद्र समाज को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं था। मध्यकाल में मुगलों ने राज्य करने एवं धर्म प्रचार के लिए अपनी भाषा को पढ़ना - लिखना ही शिक्षा समझा। अंग्रेजों के शासन काल में अंग्रेजी पढ़ना अनिवार्य किया गया। ताकि काले (देशी) अंग्रेज भारतीय नागरिकों में से ही पैदा होते रहें और अंग्रेजी हुकूमत के कार्य सुचारू रूप से उनके मुताबिक चलते रहे। आजाद भारत में भी लॉर्ड मैकाले द्वारा स्थापित शिक्षा व्यवस्था ही लागू रही। लेकिन संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा संविधान में शिक्षा को मौलिक अधिकार दिया गया। तो मनुवादियों ने इसकी काट के लिए अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए सी.बी.एस.ई.व आई.सी.एस.ई. पद्धति के अपने स्कूल, कालेज स्थापित कर लिए। अर्थात प्राचीन काल से लेकर अब तक जिन्होंने भी भारत पर शासन किया, किसी की भी नीयत 90 प्रतिशत शूद्र समाज को शिक्षित करने की नहीं रही। तमाम आयोग, समितियां, नीतियां, स्कूल, कॉलेज, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय खोले गए। लेकिन शूद्र समाज की शिक्षा को सुधारने की उसमें कोई गुंजाइश नहीं थी। कांग्रेस तथा भाजपा मनुवादियों के वंशजों की ही पार्टियां हैं। मनुवादी तो शूद्र समाज को शिक्षित होता देखना कभी पसंद नहीं करता है। इसीलिए तो कांग्रेस तथा भाजपा ने 90 प्रतिशत शुद्र समाज के बच्चों के हाथों में कटोरा - थाली थमाकर भीख मांगने की प्रवृत्ति डालने का कार्य मध्यान्ह भोजन के नाम पर कर रखा है। शुद्र समाज के बच्चों के साथ जो अमानवीय कार्य हो रहे हैं, उसके लिए केवल और केवल करने वाले मनुवादी लोग ही दोषी नहीं हैं, बल्कि शूद्र समाज में से पढ़ लिख कर तैयार हुए डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, वकील, राजनेता भी दोषी हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने दिनांक 29 - 7 - 2020 को कैबिनेट की बैठक में नई शिक्षा नीति का मसौदा रखा। जिसे कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय करने की बात कही गई है। नई शिक्षा नीति में छात्रों को विषय चुनने की छूट का प्रावधान है। अध्यापकों को और अधिक प्रशिक्षित करने की व्यवस्था है। सभी विश्वविद्यालयों के लिए एक प्रवेश परीक्षा होगी, जिससे छात्रों का समय व धन दोनों बचेगा ऐसा कहा गया है। इसके अलावा नई शिक्षा नीति की तमाम विशेषताएं बताई जा रही हैं।
भारतीय संविधान विश्व में उच्च श्रेणी का है। जिसकी आत्मा में समता, स्वतंत्रता, भाईचारा एवं न्याय बसा हुआ है। लेकिन 73 वर्ष की आजादी में दूषित मानसिकता के शासकों द्वारा संविधान की मूल भावना के अनुसार कार्य नहीं किया गया है। जिसकी वजह से देश में 90 प्रतिशत आबादी वाले एससी.एसटी. ओबीसी. और अल्पसंख्यकों के लिए समता, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय सिर्फ और सिर्फ कहने भर की बात रह गई है। यही हश्र फेकू प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा लाई गई नई शिक्षा नीति 2020 का होगा। इससे भी शूद्र समाज को कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। शिक्षा का विषय राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ा हुआ है और शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा भी प्राप्त है। यदि मोदी जी की सरकार वास्तव में मन से 90 प्रतिशत शूद्र समाज को शिक्षित करना चाहती है, तो एक शिक्षा नीति की घोषणा करें। भारतीय भाषाओं में पठन-पाठन की घोषणा करें। देश में विद्यमान दोहरी शिक्षा नीति के तहत शिक्षा माफियाओं द्वारा शिक्षा का व्यवसायीकरण करके पूरे देश में शिक्षा की दुकानें चला रखी हैं। इस व्यवसायीकरण को प्रतिबंधित कर शिक्षा का राष्ट्रीयकरण करने की घोषणा करे। सभी छात्रों के पठन-पाठन हेतु लगभग एक समान सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए। कक्षाओं के अनुसार एक समान शिक्षा शुल्क का प्रावधान होना चाहिए। पूरे देश में प्री-प्राइमरी, प्राइमरी, जूनियर, उच्च माध्यमिक, माध्यमिक, कालेज, विश्वविद्यालय के शिक्षकों का कक्षावार ग्रेड निर्धारित कर संबंधितों के एक समान वेतन भत्ते होने चाहिए। छोटे बच्चों के हाथों में थाली-कटोरा थमा कर पोष्टिक आहार, मध्यान्ह भोजन के नाम पर दलिया - खिचड़ी खिलाने से उनके अविकसित मस्तिष्क में भीख मांगने की उत्पन्न हो रही प्रवृत्ति को रोकने के लिए ऐसी दूषित योजनाओं को रोकना चाहिए। यदि यह घोषणाएं मोदी सरकार करती है, तो हम मानेंगे कि आप वास्तव में 90 प्रतिशत शूद्र समाज को शिक्षित करना चाहते हैं। लेकिन यह घोषणाएं मोदी सरकार द्वारा नहीं की जाएंगी। क्योंकि ये 100 प्रतिशत मनुवादी हैं। हम तो जुमलेबाज प्रधानमंत्री की नई शिक्षा नीति 2020 को यही समझेंगे कि भारतीय शिक्षा रूपी पुरानी वस्तु की पैकिंग पर से कांग्रेस का ब्रांड हटाकर नई पैकिंग कर नई शिक्षा नीति 2020 का मोदी ब्रांड चस्पा करके जनता के समक्ष रखा गया है। तथा मनुवादी इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया मोदी ब्रांड की नई शिक्षा नीति की तमाम विशेषताएं रात-दिन बताएगा। शूद्र समाज को सावधान हो जाना चाहिए कि जब प्राचीन काल में मनुवादियों के प्रभाव के कारण शूद्र समाज को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं था। तो आजाद भारत में केंद्र सरकार में कांग्रेस और भाजपा के रूप में 100 प्रतिशत मनुवादियों के ही वंशज शासन कर रहे हैं। वह शूद्र समाज को क्यों शिक्षित होने देंगे ? यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है।