प्रथम दृष्टया ये दोनों शब्द देखने में समान लगते हैं, किन्तु इसमें जमीन आसमान का अंतर है।
आदिवासी: प्रकृति का पूजक होता है। उसके कई रहस्य को जनता है। प्रकृति का सरक्षंण करता है। और हमेशा से जल, जंगल और जमीन का मालिक रहा है। और भारतीय क्षेत्र का मूलनिवासी है।
वनवासी: अस्थायी निवासी है, जो किसी कारणवश आकर वन में निवास कर रहा है। जैसे मनुवादी साहित्यों में राम का प्रसंग है, वे वनवासी थे, एक निश्चित समय अवधि के बाद वे अपने घर लौट गये।
अर्थात: आदिवासी स्थायी है, वनवासी अस्थायी व शरणार्थी है।
वनवासी आजीवन, स्थायी वन में रहने लगे तो वह आदिवासी स्वरूप को प्राप्त कर सकता है, और आदिवासी नागरिकता पा सकता है। किन्तु वह बाहरी मूल का ही रहेगा, जैसे:- मूलनिवासी वनाम विदेशी।
भारत के एससी, एसटी, ओबीसी ही आदिवासी हैं। अब ये दो भागों में हैं- आदिवासी एवं शहरी आदिवासी, जो शहर के करीब आ गये, आधुनिक हो गये वो शहरी आदिवासी हैं।
आजकल कई आदिवासी इलाकों में कुछ हिंदूवादी संगठनों के लोग, आदिवासियों को सभ्य नागरिक बनाने के बजाय, एकलव्य व द्रोणाचार्य नाम से बने संगठनों के माध्यम से उन्हें हिन्दू बनाने के लिए बड़ी जोर शोर से कार्य कर रहे हैं। उन्हें कह रहे हैं कि आप हिन्दू हैं, आप हिन्दू में रहें। किन्तु आदिवासी सेन्सस 2021 में अपने अलग 7 वें धर्म कालम की मांग कर रहे हैं, जो कि जायज है।
आदिवासी इलाकों में एकलव्य और द्रोणाचार्य का प्रचार यह दर्शाता है कि आप बलशाली हैं, बहादुर हैं, महावीर हैं, आप रहें, किन्तु आपके गुरु (द्रोणाचार्य) व शासक हम ही रहेंगे। आपको हमारी अधीनता स्वीकार करनी होगी, अन्यथा एकलव्य जी की भाँति आपका अगूंठा हम काट लेंगे।
अब समय बदल गया है, भारतीय संविधान इन सभी रूढ़िवादी परम्पराओं का उन्मूलन करता है, और सभी भारतीय नागरिकों को समान अवसर व समान अधिकार देता है। शासक वर्ग को भी अब शोषकनीति का त्याग करना चाहिए ताकि भारत समृद्धि व शाक्तिशाली राष्ट्र बने। -राम सतन निषाद (सुल्तानपुर)