भारत में आज कोविड मरीजों का आंकड़ा 2 लाख को पार कर गया। जिस तरह श्मशानों में लाशें आ रही हैं, उससे मौत का आंकड़ा सरकारी रिकॉर्ड से 5-7 गुना ज्यादा ही समझें।
"महाप्राण" सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने 1918 में फैली दुनिया की सबसे बड़ी महामारी स्पैनिश फ्लू का ज़िक्र करते हुए लिखा है- गंगा के तट पर खड़ा हूं। नदी में लाशों का उफ़ान है। खबर मिली है कि पत्नी नहीं रहीं। बड़े भाई और उसके सबसे बड़े बेटे ने भी दम तोड़ दिया है।
कोविड और स्पेनिश फ्लू में बड़ी समानता है। दोनों महामारियों को शुरू में छिपाया गया। भारत में पहले विश्वयुद्ध में भाग लेकर जहाज से लौटी सेना इसे यहां लेकर आई और दो साल में 1 करोड़ 20 लाख जिंदगियां लील गई।
आज 100 साल बाद वही स्थिति है। तब का भारत गांव में बसता था, सो मौत ज़्यादा हुई। लेकिन गंगा आज भी बह रही है, लोग बेखौफ नहा रहे हैं।
स्पैनिश फ्लू से इतनी व्यापक तबाही के लिए लोगों ने ब्रिटिश सरकार को दोष दिया। एक तो अकाल और फिर महामारी।
क्या आज भारत में भुखमरी नहीं है? 22 करोड़ सरकारी गरीबों के साथ उन ग़रीबों को भी गिनें, जो बीते 7 साल में सब-कुछ लुटा बैठे।
लगभग 40 करोड़ आबादी आज भूखे पेट है। मानव निर्मित इस अकाल से पीड़ित लोगों को कोविड ने अभी छुआ नहीं है- शुक्र मनाइए।
लेकिन, बीते 100 साल में एक-दूसरे को कोसने के सिवा हमने सीखा क्या? अस्पताल तब भी नहीं थे, आज भी नहीं हैं। संसाधन तब भी नहीं थे, आज भी कम हैं।
वो तो भला हो कांग्रेस की उन सरकारों का, जिन्होंने देश में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा खड़ा किया। वरना, कोई बता सकता है कि नरेंद्र मोदी के स्मार्ट शहरों में अस्पताल, प्रयोगशालाएं और ऑक्सीजन प्लांट कहाँ हैं?
भारत के स्मार्ट शहरों में लोग बिना ऑक्सीजन तड़पकर मर रहे हैं। दर्जनों श्मशान बनाने पड़ रहे हैं, जिनका मास्टर प्लान में कोई ज़िक्र नहीं। एम्बुलेंस नहीं तो लोग मरीजों को ऑटो, बाइक और पैदल भी लेकर आ रहे हैं।
निराला ने स्पैनिश फ्लू की विभीषिका को अपनी आंखों से देखा। विनाश के आगे सृजन होता है। निराला कवि बन गए, महाप्राण हो गए।
महात्मा गांधी ने अपनी बहू और पोते को खोया और अपने आश्रम के बाहर थूकी गई बलगम को खुद साफ करने लगे।
हमारे समाज ने क्या सीखा? इसी समाज से निकले और देश पर राज कर रहे नेताओं ने क्या सीखा? आज स्पैनिश फ्लू के 100 साल बाद भी मौजूदा सरकार और ब्रिटिश हुकूमत में क्या फ़र्क़ नज़र आता है? इस पर कोई सवाल क्यों नहीं उठा रहा है?
एक अनुमान के अनुसार स्पैनिश फ्लू ने भारत की 6% आबादी को खत्म कर दिया था। रूसी तानाशाह स्टालिन ने कहा था- एक मौत त्रासदी है और लाखों मौत सिर्फ एक आंकड़ा।
और देश लगातार बढ़ते मौत के आंकड़े पर स्तब्ध है। 1920 में भारत की भूखी, मज़लूम जनता ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आई थी, जिससे आजादी की लड़ाई को बड़ी ताकत मिली।
आज कोरोना से जूझती भरपेट जनता घरों में दुबकी बैठी है। मौत एक आंकड़ा है।
ये वही भरपेट समाज है, जो चुनाव पर जब वोट डालने निकलता है तब उसे सफेद टोपी में मुल्ले दिखते हैं। नफ़रत का वायरस जागता है तो उंगली धर्म के निशान पर जाकर रुकती है।
फिर अस्पतालों, ऑक्सीजन, डॉक्टरों की मनमानी और सरकारों की नपुंसकता पर क्यों कोसते हो भाई?
आपने कब अस्पताल, स्वास्थ्य सेवाओं, स्कूल, मुफ़्त पीने का पानी, साफ हवा और अपराध मुक्त समाज के लिए वोट दिया है?
आपने तो जाति-बिरादरी, धर्म और अपना फायदा देखकर ही वोट दिया है। पिछले दो बार से आप एक मूर्ख, झूठे और फांदेबाज़ को वोट देते आ रहे हैं, जिसने आपको सिर्फ ख़्वाब दिखाए।
स्पैनिश फ्लू के दौरान भारत का आर्थिक विकास माइनस 10.8 था। पिछले साल जब यह माइनस 23 पर पहुंच गया था तो समाज ने क्या किया?
क्या शादियों में रौनक कम हुई? क्या गाड़ी, बंगला, पार्टी, उत्सवों में कोई कमी आई?
मार्कण्डेय काटजू साहेब 95% आबादी को मूर्ख बताते हैं। मैं भारत की 99% आबादी को धूर्त मानता हूं।
इसीलिए मैं मौजूदा विनाश के बाद सृजन की बिल्कुल उम्मीद नहीं करता। मुझे किसी "महाप्राण" का इंतज़ार नहीं है।
रिटायर्ड जिला जज ने पत्र लिखकर बयां की अपनी पीड़ा।
गुड न्यूज!!
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