ओबीसी के पास फिर से ऐतिहासिक मौका: पढ़ें - प्रो. श्रवण देवरे साहब का विशेष आलेख

ओबीसी के पास फिर से ऐतिहासिक मौका: पढ़ें - प्रो. श्रवण देवरे साहब का विशेष आलेख 

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    उल्लेखनीय है कि 1977 में सरकार बनाने वाली जनता पार्टी में ओबीसी नेताओं का प्रभाव था, जिसके फलस्वरूप मंडल आयोग का गठन हुआ। करीब 10 वर्ष के बाद 1989 मे सत्ताधारी जनता दल में ओबीसी नेताओं का वर्चस्व था और संघ-भाजपा का बाधक खेमा बाहर था।

    अगले वर्ष 2024 में लोकसभा का चुनाव होना है। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, अभी से सभी इसकी तैयारी में जुट गए हैं। वहीं खुद को क्रांतिकारी कहलाने वाले वामपंथी, समाजवादी व फुले- आंबेडकरवादी आजकल इतनी जल्दबाजी में हैं कि एक छोटी-सी आशा की किरण से वे अपना आपा खोने लगे हैं। 

सामान्य तौर पर कोई भी जागरूक व्यक्ति अथवा समाज अपने ऊपर आनेवाले संकट की आहट मिलते ही सतर्क होता है और उससे बचने के लिए योजनाएं व रणनीतियां बनाता है। इस बारे में वामपंथी एवं प्रगतिशीलों का पूर्वानुभव क्या कहता है, यह देखना प्रासंगिक होगा। 

     मसलन, 1975 के आपातकाल के कारण खतरे में आए लोकतंत्र को बचाने के लिए उस समय प्रयत्न किए गए। उस समय कांग्रेस के एकाधिकारशाही के विरोध में लोहियावादी समाजवादी पार्टी, ब्राह्मण वादी ‘संघ–जनसंघ’ व गांधीवादी–पूंजीवादी पार्टी कांग्रेस के इंदिरा विरोधी धड़े, तीनों ने विलय कर जनता पार्टी का गठन किया। इस पार्टी में एक–दूसरे के घोर विरोधी समाजवादी एवं संघ–जनसंघ दोनों शामिल थे। इन दोनों में समन्वय साधने का काम गांधीवादी धड़ा कर रहा था। जनता पार्टी के इस वैचारिक गठबंधन ने 1977 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत प्राप्त कर कांग्रेसी तानाशाही को खत्म किया एवं लोकतंत्र की पुनर्स्थापना की। यह गठबंधन और उसकी सत्ता दीर्घकाल तक टिकी भी रहती, यदि उसमें जातीय संघर्ष की चिनगारी न पड़ी होती। जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में ही चिंगारियां निहित थीं। 

   दरअसल, जनता पार्टी के निर्माण एवं नीति निर्धारण में समाजवादी आंदोलन से आए नेताओं का महत्वपूर्ण योगदान था। इसमें अहम भूमिका ग्रामीण परिवेश से ओबीसी जातियों से आए नेताओं की थी। इसलिए उनकी जमीनी सामाजिक ताकत ज्यादा थी। सनद रहे कि 1967 में तामिलनाडू, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में ओबीसी नेता अपने खुद के बलबुते मुख्यमंत्री बने थे। जनसंघ को उस समय ब्राह्मण व बनियों की पार्टी के रूप में पहचाना जाता था, इसलिए उसकी सामाजिक ताकत कुछ खास नहीं थी। 

   ओबीसी नेताओं के प्रभाव के कारण जनता पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में कालेलकर आयोग लागू करने की बात शामिल करनी पड़ी। इतना ही नहीं चुनाव में प्रचंड बहुमत से सत्ता मिलने के बाद जनता सरकार में तुरंत कालेलकर आयोग लागू करने के लिए हलचल भी शुरू हो गई। 

    ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर उसके पहले भी राज्य सरकारें गिर चुकी थीं। इस कारण गांधीवादी–पूंजीवादी विचारधारा को मानने वाले मोरारजी देसाई, जो कि सरकार का नेतृत्व कर रहे थे, ने सावधानी बरती। उन्होंने जाति-वर्ण समर्थक संघियों और जाति के विनाश को अहम माननेवाले समाजवादियों के बीच समन्वय साधने की कोशिश की। लेकिन जब कालेलकर आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने की मांग ने जोर पकड़ा तब मोरारजी देसाई ने इसे यह कहकर टालने की कोशिश की कि कालेलकर आयोग पुराना हो गया है और अब एक नया आयोग का गठन किया जाएगा। ऐसा कहकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अपने लिए कुछ समय तो निकाल लिया लेकिन यह कि दो वर्ष बाद जब मंडल आयोग की रिपोर्ट आएगी तब सरकार कैसे बचाएंगे, यह चिंता उन्हें खाए जा रही थी। इसी दौरान मंडल आयोग का कार्यकाल एक साल और बढ़ाकर उन्होंने मुसीबत को आगे ढकेल दिया। लेकिन संघी खेमा इस प्रकार समय बिताने से संतुष्ट नहीं था। उन्हें मालूम था कि जनता पार्टी की सरकार अस्तित्व में रहते यदि मंडल आयोग की रिपोर्ट लोकसभा में पेश हुई तो उसे लागू करने से कोई भी नहीं रोक सकता। वजह यह कि उस समय आक्रामक ओबीसी नेताओं का दबाव था और वे मंडल आयोग का विरोध खुलकर नहीं कर सकते थे। फिर उस मुद्दे पर संघी जनता पार्टी की सरकार भी नहीं गिरा सकते थे। इसलिए उन्होंने दोहरी सदस्यता का मुद्दा ढूंढ़कर निकाला और इसके आधार पर ही सरकार गिरा दी गई। इस प्रकार तत्कालीन ब्राह्मणी खेमे ने मंडल आयोग के संभावित क्रियान्वयन को रोक दिया थ।  

   वस्तुत: जिस दोहरी सदस्यता के मुद्दे को लेकर मोरारजी सरकार का पतन किया गया, वह कितना फालतू था कि यह सरकार गिराने वाले समाजवादी जार्ज फर्नांडीस ने ही सिद्ध किया। संघ–जनसंघ की दोहरी सदस्यता का कड़ा विरोध करते हुए जार्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार गिराई गई। लेकिन यही जार्ज फर्नांडीस बाद में संघ–भाजपा नीत राजग गठबंधन के संयोजक बने और अटलबिहारी वाजपेयी सरकार में रक्षामंत्री भी। कहना अतिरेक नहीं कि जनता पार्टी की सरकार गिराकर संभावित मंडल आयोग को लागू करने से रोकने वाले षड्यंत्र को सफल बनाने में जार्ज फर्नांडीस ने संघ–जनसंघ की ब्राह्मणी छावनी की जो मदद की थी, उसका इनाम ही उन्हें मिला।

    इंदिरा गांधी के एकाधिकारशाही के विरोध में लोकतंत्र बचाने के लिए जनता पार्टी का जो प्रयोग हुआ, उसमें ब्राह्मणी–अब्राह्मणी छावनी के बीच का संघर्ष देश के एजेंडे पर आना और मंडल आयोग के माध्यम से जाति के विनाश का सवाल लंबित रह जाना जनता पार्टी के प्रयोग का फलाफल समझा जाना चाहिए।

    कालेलकर आयोग की रिपोर्ट कचरा पेटी में डालने का अनुभव कांग्रेस के पास होने के कारण मंडल आयोग की रिपोर्ट भी ठंडे बस्ते में डालने का काम यही कांग्रेस कर सकती है, यह ध्यान में रखकर संघ–भाजपा ने 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी की सरकार फिर से लाने के लिए कांग्रेस को परोक्ष रूप से सहयोग किया। इदिंरा गांधी ने 1980 में सत्ता में आने के बाद मंडल आयोग की रिपोर्ट का वही हाल किया, जो नेहरू ने 1955 में कालेलकर आयोग का किया था। इस प्रकार ब्राह्मण खेमे के कांग्रेस व संघ–भाजपा ने एक-दूसरे का सहयोग करते हुए दोस्ती निभाई।

     फुले–आंबेडकर की जाति अंतक लोकतांत्रिक आंदोलन व समाजवादी आंदोलन से तैयार हुए आक्रामक ओबीसी नेताओं के कारण मंडल आयोग की रिपोर्ट को अधिक दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता, इसका विश्वास ब्राह्मणी खेमे को था। इसलिए मंडल आयोग को दबाने का काम इंदिरा गांधी को सौंपकर भी वे शांत नहीं बैठे।

    इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति की प्रचंड लहर में 1984 का लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ एवं रिकार्ड बहुमत से राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। मंडल आयोग के संभावित जाति अंतक आक्रमण को रोकने के लिए संघ–भाजपा ने राजीव गांधी से छिपा गठबंधन करके धार्मिक–सांस्कृतिक हमले की तैयारी शुरू कर दी। राजीव गांधी से राम मंदिर का दरवाजा खुलवाकर हिंदू-मुस्लिम राजनीति महाद्वार खोल दिया गया। कांग्रेस व संघ–भाजपा ने 1985 से ही यह षडयंत्र अमल में लाना शुरू कर दिया। 

   उधर मंडल आयोग की रिपोर्ट के आलोक में राजनीति करवट बदल रही थी। इस कारण सियासी गलियारे में खलबली मची थी। इसकी परिणति तत्कालीन विदेश मंत्री एवं वित्तमंत्री वीपी सिंह द्वारा बगावत के रूप में हुई। सिंह ने जातीय असंतोष को संगठित करते हुए समाजवादियों के साथ जनता दल का गठन किया व आर्थिक असंतोष को एजेंडे पर लाकर कम्युनिस्टों का भी समर्थन हासिल किया। 1989 के चुनाव में जनता दल को जीत मिली और वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। 

       उल्लेखनीय है कि 1977 में सरकार बनाने वाली जनता पार्टी में ओबीसी नेताओं को प्रभाव था, जिसके फलस्वरूप मंडल आयोग का गठन हुआ। करीब 10 वर्ष के बाद 1989 मे सत्ताधारी जनता दल में ओबीसी नेताओं का वर्चस्व था और संघ–भाजपा का बाधक खेमा बाहर था। इसलिए मंडल आयोग को लागू करने के बाद ही सरकार गिराने की राजनीतिक हलचल शुरू हुई। 

    उपरोक्त ऐतिहासिक उद्धरणाें से यह स्पष्ट है कि जब–जब कांग्रेस/भाजपा की तानाशाही के विरोध में वामपंथी प्रगतिशीलों एवं फुले–आंबेडकरवादियो का संयुक्त गठबंधन या दल बना है, तब तब जाति के विनाश की लड़ाई अगले मोड़ पर पहुंची है। इसका श्रेय ओबीसी नेताओं को जाता है। 

    सनद रहे कि 1990 के दशक में ही कांशीराम का दलित आंदोलन भी जोरदार था। मगर भाजपा के साथ गठबंधन करने की वजह से बसपा ने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।यह निर्विवाद सत्य है कि कांग्रेस-संघ-भाजपा की ब्राह्मणवादी छावनी को सिर्फ ओबीसी से डर लगता है। आज भी वे स्टालिन, अखिलेश और नीतीश-तेजस्वी के रूप में ब्राह्मणवादी खेमे के सामने चुनौती बनकर खड़े हैं।  

    लेकिन ब्राहम्णवादी खेमे ने पूर्व से सबक सीखा और हमले के लिए एक नई चाल चली। इस नई योजना के तहत इन दोनों पार्टियों ने अपने लिए ओबीसी नेताओं को तैयार किया। इसके अलावा ओबीसी नेताओं के भ्रष्टाचार की फाइलें तैयार की गईं और उनके माध्यम से ओबीसी नेताओं को लाचार बनाया गया। ईडी और सीबीआई की धमकी देकर उन्हें ओबीसी आंदोलन खत्म करने के काम में लगाया गया। तमिलनाडु व यूपी–बिहार की तरह अन्य राज्यों में क्रांतिकारी विचारों के प्रमाणिक ओबीसी कार्यकर्ता ‘ओबीसी नेता’ न बनने पाएं, इस पर नजर रखने का काम ओबीसी नेताओं को सौंपा गया।

   बहरहाल, 1990 में मंडल आयोग के बाद कांग्रेस–संघ भाजपा की ब्राह्मणी छावनी में तात्कालिक तौर पर हतबल हुई थी। उसके करीब 7 वर्ष बाद आई देवगौड़ाकी ओबीसी सरकार ने ओबीसी की जाति आधारित जनगणना कराने का संकल्प लिया। लेकिन तबतक दिग्भ्रमित ओबीसी नेताओं के माध्यम से भारत भर का ओबीसी आंदोलन हाइजैक किया जा चुका था। मंडल आयोग के झटके से उभरते हुए उन्हें ओबीसी की जाति आधारित जनगणना को हर हाल में रोकना था। लेकिन अवसरवादी ओबीसी नेताओं के कारण जाति आधारित जनगणना की लड़ाई आक्रामक नहीं हो सकी। 

   आज फिर कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों को ओबीसी वोट बैंक की जरूरत है तो उनसे गठबंधन करते समय जातिगत जनगणना को प्राथमिकता देनी ही होगी!

    बीते दिनों जब राहुल गांधी की पदयात्रा शुरू हुई और मुझे कांग्रेस के दिल्ली कार्यालय से फोन आया कि आप इस पदयात्रा में शामिल हों। मैंने प्रत्युत्तर में कहा कि मैं अकेले पदयात्रा में शामिल होने के बजाय अपने अनेक सहयोगियों के साथ पदयात्रा में शामिल हो सकता हूं, लेकिन राहुल गांधी हमारे ओबीसी शिष्टमंडल से चर्चा करें और ठोस कार्यक्रमों की घोषणा करें, तभी हम पदयात्रा में शामिल होंगे। उधर से सकारात्मक उत्तर मिलने पर मैं काम में जुट गया।

  इस क्रम में मैंने अपने लोगों से बातचीत की और उनका विचार जानना चाहा कि इस पदयात्रा में शामिल हुआ जाय या नहीं। कइयों ने कहा कि पत्थर से ईंट ही भली। यानी कांग्रेस भाजपा का अच्छा विकल्प हो सकती है। वहीं कुछ लोगों ने कहा कि कांग्रेस–भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, वे कभी भी एक–दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते। कुछ लोगों को शिष्टमंडल के रूप में राहुल गांधी से मुलाकात का विचार पसंद आया।

   दरअसल, यहां मामला किसी का अनुयायी बनना नहीं है, बल्कि स्वतंत्र शक्ति के रूप में समूह को स्थापित करना है। हमारा इरादा स्पष्ट रहा कि हमें शामिल होना है तो हम जिस ओबीसी आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो इस आंदोलन का मिनिमम एजेंडे को मानने के लिए सामने वाले को तैयार होना ही चाहिए। तभी इस मेल-मिलाप को स्वाभिमानी मेल-मिलाप कहा जा सकता है। 

     देशभर के ओबीसी आंदोलनों का एक ही एजेंडा है– जातिवार जनगणना। यह केवल ओबीसी वर्ग के हित का कार्यक्रम नहीं, बल्कि पूरे देश के विकास में बाधक बनी जाति-व्यवस्था को नष्ट करने का एक प्रभावशाली कार्यक्रम है। अभी तमाम वामपंथी और प्रगतिशील जाति के विनाश को लेकर एकमत हैं। लेकिन मूल सवाल यही है कि जाति के संबंध में आंकड़े ही नहीं हैं। 

    जाहिर तौर पर सभी वामपंथी, प्रगतिशील व फुले–आंबेडकरवादियों को इस आंदोलन में शामिल होना चाहिए। लेकिन परिस्थिति इसके ठीक उलट है। जैसे लगता है कि जाति के विनाश की जिम्मेदारी अकेले ओबीसी आंदोलन की है। ऐसी मानसिकता से वामपंथी व अन्य समान विचारधर्मी दलों को मुक्त होना चाहिए। लेकिन उन्हें ओबीसी वर्ग के नेतृत्व में चल रहे जातिवार जनगणना आंदोलन से कुछ भी लेना–देना नहीं है।     हालांकि पदयात्रा के दौरान राहुल गांधी से 10-15 ओबीसी कार्यकर्ताओं ने चर्चा की। इस चर्चा में राहुल गांधी ने ओबीसी वर्ग की भरपूर स्तुति करते हुए कहा कि “ओबीसी इस देश के विकास की धुरी है। वह उत्पादक वर्ग है। वे पैर से पैदा हुए शूद्र नहीं हैं।” आगे उन्होंने कहा कि “ओबीसी जनगणना के बारे में मुझसे कुछ कहने के बजाय वर्तमान भाजपा सरकार पर दबाव बनाइये! यदि यह सरकार तैयार नहीं होती तो अगले दस वर्ष के लिए ऐसी सरकार लाइए जो ओबीसी जनगणना कराए।”

   


    बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, राजस्थान के (मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. स्टालिन और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव)

    बहरसूरत अब केवल आश्वासनों का समय नहीं रह गया है। सनद रहे कि इसके पहले 2019 में जब लोकसभा चुनाव हुए तब कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में जातिवार जनगणना के बाबत कोई वादा नहीं किया था। ऐसे में केवल उनके कह देने मात्र से बात आगे नहीं बढ़ेगी। केवल सेलिब्रेटी से मिलने का कोई मतलब नहीं। मैंने पूर्व में बताया कि 1977 में ओबीसी ने कांग्रेस के विरोध में संघ–जनसंघ से गठबंधन करके संघर्ष किया। इस संघर्ष के कारण कालेलकर व मंडल आयोग का विषय देश के एजेंडे में शामिल हुआ। फिर 1989-90 में प्रस्थापित पार्टियों से ऐसा ही गठबंधन करके ओबीसी नेताओं ने मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू कराया। 

    आज फिर कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों को ओबीसी वोट बैंक की जरूरत है तो उनसे गठबंधन करते समय जातिगत जनगणना को प्राथमिकता देनी ही होगी। लेकिन इससे इतर मौजूदा परिदृश्य कुछ और बातें कहता है। शिवसेना के अनेक विधायक–सांसद टूट चुके हैं और आज वे भाजपा की ताकत बने हुए हैं, जिसके कारण महाराष्ट्र में शिवसेना राजनीतिक रूप से कमजोर हुई है। ऐसी परिस्थिति में शिवसेना राजनीतिक शक्ति बढ़ाने का प्रयास कर रही है। लेकिन राजनीतिक शक्ति सामाजिक आंदोलन से आती है। वर्तमान में ओबीसी आंदोलन का बोलबाला होने के कारण शिवसेना ने कुछ ओबीसी कार्यकर्ताओं को अपने पाले में शामिल कर लिया है। वह भी केवल विधायकी के लिए शिवसेना का टिकट प्राप्त करने की शर्त पर। वे भूल गए हैं कि जिस ओबीसी आंदोलन ने उन्हें शिवसेना में जाने लायक बड़ा किया है, उस ओबीसी आंदोलन से शिवसेना को कुछ भी लेना देना नहीं है। ऐसे ही वंचित बहुजन आघाडी द्वारा शिवसेना से किया गया गठबंधन है। अभी भी मामला मुद्दे पर नहीं, बल्कि सीटों की संख्या पर अटका पड़ा है। मुद्दे प्राथमिकता में नहीं हैं। यहां तक कि जातिवार जनगणना का मुद्दा भी उनके बीच के विमर्श से गायब है। 

    ऐसे दलों को अतीत की ओर देखना चाहिए। जो सियासत जानते-समझते हैं, वे मानते हैं कि ऐसा ही हश्र कांशीराम द्वारा संघ-भाजपा के साथ गठबंधन का हुआ था। कांशीराम ने यदि बसपा की तरफ से सीता–शंबूक–एकलव्य–कर्ण का सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा किया होता तो आज मायावती को रामनाम का जप नहीं करना पड़ता व परशुराम का मंदिर बनाने की घोषणा नहीं करनी पड़ती।

    प्रकाश आंबेडकर ने कोई भी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, व जाति अंतक एजेंडा आगे न करके केवल ‘सीट बंटवारे’ के मुद्दे पर ही यदि गठबंधन किया तो वंचित बहुजन आघाडी की हालत बसपा से अलग नहीं होगी, क्योंकि ब्राह्मण–पेशवाओं की भाजपा द्वारा इतने अपमान के बावजूद शिवसेना नेता राममंदिर की यात्रा कर रहे हैं एवं हिंदुत्व से चिपके हुए हैं। कुल मिलाकर अब यदि वंचित समुदायों को राजनीति करनी है तो अपने लक्ष्य स्पष्ट रखने होंगे। 

(मूल मराठी से अनुवाद : चंद्रभान पाल)


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नई दिल्ली। बहुत बहुत बधाई हो : मा. विशम्भर प्रसाद निषाद जी को दूसरी बार संसद रत्न रिवॉर्ड से सम्मान के लिए चुने जाने पर। गर्व की बात यह है कि, ये संसद रत्न एवॉर्ड 2023 के लिए मा. विशम्भर प्रसाद निषाद जी को उनके 4 जुलाई 2022 को राज्यसभा से रिटायर्ड होने के बाद दिया जा रहा है।

   सम्पूर्ण निषाद वंश के लिए यह खुशी का मौका है कि, शोषित वर्ग के सबसे कद्दावर नेता, जो बाँदा जिला की तहसील पैलानी के जसपुरा ब्लॉक के झंझनी पुरवा गांव में जन्मे और अपनी क्षेत्र की तिन्दवारी विधानसभा से 4 बार विधायक, पड़ौसी जिला फतेहपुर से 1996 में लोकसभा सांसद, 2 बार राज्यसभा में समाजवादी पार्टी के सांसद ( 4 जुलाई 2022 को रिटायर्ड हुए थे ), 3 बार उत्तर सरकार में मंत्री रहते हुए, हमेशा गरीब हित के लिए सभी जगह कार्य करते रहे हैं और आज भी समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बने हुए हैं। मा. विशम्भर प्रसाद निषाद जी ने उत्तर प्रदेश की 17 अतिपिछड़ी जातियों मल्लाह, केवट, कहार, कश्यप, निषाद, बिंद, बाथम, तुराहा, गौड़, गौड़िया, मांझी, धीवर, धीमर, भर, राजभर, कुम्हार, प्रजापति को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाने के लिए सड़क से लेकर संसद तक हर मौके पर अपनी आवाज बुलंद की और संसद में प्राइवेट मेम्बर बिल व संकल्प तक पेश कर मोदी सरकार को इन जातियों को आरक्षण देने के जोरदार बहस के लिए मजबूर किया। इस खबर के साथ कुछ वीडियो मा. विशम्भर प्रसाद निषाद जी की दी गई है, आप उनको किलिक करके हमारे महान नेता के संघर्ष को देख सकते हैं और इस खबर को ज्यादा से ज्यादा शेयर कर समाज को जागरूक करने में अपना योगदान देकर, मा. विशम्भर प्रसाद निषाद जी के हाथों को मजबूत कर सकते हैं। क्योंकि राष्ट्रीय हित में किये गए इनके योगदान को देखर ही दूसरी बार संसद रत्न से सम्मानित किया गया है। निषाद वंश में संसद रत्न से सम्मानित होने वाले पहले और आज तक एकमात्र नेता बन गए हैं मा. विशम्भर प्रसाद निषाद जी। 

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पहली बार मिले संसद रत्न रिवॉर्ड की झलक नीचे दी गई वीडियो को किलिक करके देखें :




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देखें संसद में कैसे मा. विशम्भर प्रसाद निषाद जी ने उठायी परिभाषित आरक्षण की मांग 


देखें मोदी सरकार के सामाजिक अधिकारिता मंत्री ने परिभाषित आरक्षण क्यों नही होने दिया लागू


वीडियो किलिक करके देखें, कर्नाटक फॉर्मूला पर मोदी सरकार से संसद परिभाषित आरक्षण की मांग रखते मा. विशम्भर प्रसाद निषाद जी

देखें इस वीडियो में: क्यों भाजपा के पालतू तीतरों का सामाजिक वहिष्कार करना जरूरी है!



   नीचे की वीडियो को किलिक करके देखें, निषाद आरक्षण के लिए 7 जून को गोरखपुर के कसरबल में अपनी जान कुर्बान करने वाले वीर शहीद अखिलेश निषाद के पिताजी श्री आत्माराम निषाद जी ने कैसे खोली निषाद आरक्षण पर धोखा देने वाले, निषादों के महाठग की पोल।



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