डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आरक्षण क्यों खारिज किया गया?

 ओबीसीनामा 12, अम्बेडकरवाद.. भाग-2 - प्रो. श्रवण देवरे 

             डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा

                 ब्राह्मण + क्षत्रिय + वैश्य

              आरक्षण क्यों खारिज किया गया?

    इस लेख के पहले भाग में हम एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु पर रुके थे। शब्द-सीमा मेरे सामने बड़ी समस्या बन गई है। हमारा बहुजन समाज लंबे लेख  पढ़ता ही नहीं. इसमें हमारे एक बड़े भाई टीवी पर साफ-साफ कहते हैं, 'मैं कुछ नहीं पढ़ता, मैं कोई अध्ययन नहीं करता, मुझे कानून के बारे में कोई जानकारी नहीं है, लेकिन मुझे आरक्षण चाहिए, और वह मुझे ओबीसी से ही चाहिए!' ऐसी परिस्थिति में लिखने वाले लिखें भी तो किसके लिए?वे इसे नहीं पढ़ेंगे, लेकिन अगर उनके गरीब मराठा बच्चों को ओबीसी से आरक्षण मिलने लगा तो शायद वे बच्चे किसी दिन ओबीसी साहित्य पढ़ेंगे, इस उम्मीद में लिखते रहना पड़ता है, खैर! 


   डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने हिंदू सामाजिक संरचना को मुख्य दो भाग और चार उप-भागों में विभाजित किया था। इसके प्रथम मुख्य भाग के प्रथम उपखण्ड में वे उन जातियों को सम्मिलित करते हैं जो जाति व्यवस्था के (शोषण) से लाभान्वित होती हैं और इसीलिए ये जातियाँ जाति व्यवस्था को जीवित रखने तथा उसे मजबूत करने के लिए निरन्तर संघर्ष करती रहती हैं। इन जातियों को परिभाषित करते समय उन्होंने जिन सटीक एवं शास्त्र सम्मत शब्दों का प्रयोग किया है, उनका अध्ययन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।  प्रथम उपविभाजन को परिभाषित करते हुए डाॅ बाबासाहब अम्बेडकर लिखते हैं-

"High Caste - Dvijas Traivarnikas - Caste evolved out of three varnas, Brahmins, Kshatriyas, and Vaishyas. "


"उच्च जातियां - द्विज वर्णिक - जातियां तीन वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से विकसित हुई हैं।"

Evolved शब्द का अर्थ शब्दकोष में 'उत्क्रांत' दिया गया है। ब्राह्मण वर्ण से 'ब्राह्मण जाति'  उत्क्रांत हुई, क्षत्रिय वर्ण से 'मराठा, जाट, पटेल, ठाकुर, राजपूत आदि जातियों का निर्माण हुआ। वैश्य वर्ण से व्यापारी-बनिया जातियों का निर्माण हुआ है। और ये सभी जातियां सत्ताधारी हैं। ऐसा बाबा साहेब स्पष्ट कहते हैं । पहले भाग के दूसरे उपभाग में शूद्र वर्ण से निकली जातियाँ हैं, जिन्हें आज हम ओबीसी(SEBC) के नाम से जानते हैं। तीसरा उपविभाजन यह घुमंतू-आपराधिक जातियों-जनजातियों और आदिवासी जनजातियों का है जबकि चौथा उपविभाजन अछूत जातियों का है। बाबा साहब ने इनका वर्गीकरण एससी, एसटी और ओबीसी के रूप में किया है। इन तीनों उप-विभाजनों की जातियां और जनजातियां जाति व्यवस्था में शोषित व शासित हैं, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के मित्र बन सकते हैं। लेकिन श्रेणीबद्ध अधोगामी असमानता' ( Graded Inequality) होने के कारण वे एक-दूसरे के दोस्त बनने के बजाय दुश्मन ही बन गए हैं। ऐसा भी उन्होंने लिखा है। 

   ब्राह्मणेतर आंदोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन ने उन्हें एक साथ संगठित करके उन्हें आपस में दोस्त बनाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें इस काम में असफलता ही हाथ लगी। ऐसा बाबा साहेब लिखते हैं। 

   डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने आरक्षण (प्रतिनिधित्व) की डिजाइन को सुविधाजनक बनाने के लिए एससी, एसटी, ओबीसी और ओपन नामक चार श्रेणियां बनाईं। लेकिन उनके द्वारा तैयार किए गए उपरोक्त चार्ट में, उन्होंने स्पष्ट रूप से दो छावनियों की अपेक्षा की है, एक जाति-समर्थक और दूसरी जाति-विरोधी। अर्थात यह एक प्रकार से जातीय संघर्ष का नयी उच्चतर व्याख्या है। श्रेणीबद्ध पदानुक्रमित असमानता में चलने वाला जाति संघर्ष यह प्रत्येक जाति को दूसरी जाति से अलग रखता था। लेकिन आरक्षण के समान हित संबंध के कारण एससी कटेगरी की जातियां संगठित होंगी, एसटी जनजातियां संगठित होंगी और ओबीसी जातियां भी संगठित हो जाएंगी. इस प्रकार जाति विरोधी अब्राह्मणी छावनी मूर्त रूप ग्रहण करेगी।बाबा साहेब की यह अपेक्षा कुछ हद तक सफल भी होती दिख रही है।

    जाति व्यवस्था बनाते समय मनु ने जो  उपाय योजना तैयार किया और तथाकथित क्षत्रिय सामंती राजाओं द्वारा लागू करवाए गए वे सभी उपाय योजना आज भी जाति व्यवस्था को जीवित रखने और मजबूत करने के लिए जाति समर्थक सत्ताधारी ब्राह्मणी छावनी  अमल में लाती रहती है। ऐसी परिस्थिति में जाति समर्थक ब्राह्मणी छावनी व जाति विरोधी अब्राह्मणी छावनी के बीच संघर्ष को लोकतंत्र की मर्यादा में नियंत्रित करने वाले संविधान निर्माण की जिम्मेदारी बाबा साहेब डाॅ अंबेडकर के कंधों पर आई और उन्होंने इसे सफलतापूर्वक पूरा भी किया। 

    समता और सुसंपन्नता ये दोनों चीजें हाथ में हाथ डाले एक साथ आती व जाती रहती हैं. जब तुलनात्मक समानता आती है, तो उत्पादक- मेहनतकश वर्ग उमंग व तन मन धन से अधिक काम करता है । इससे उत्पादन बढ़ता है और अर्थव्यवस्था फलती-फूलती है। तात्यासाहेब महात्मा जोतिराव फुले हमें बताते हैं कि बली का राज्य इसलिए समृद्ध हुआ क्योंकि उनके राज्य में समता थी। बौद्ध क्रांति द्वारा लाए गए समतावादी विचारों के प्रबोधन से गुलाम मुक्त हो गए और वे अधिक उत्साह से उत्पादन करने लगे। जिसके कारण भारतीय उत्पादकों ने पश्चिमी देशों के बाज़ारों पर कब्ज़ा कर लिया। बौद्ध काल में अर्थव्यवस्था खूब फली फूली। यदि उत्पादक- मेहनतकश वर्ग संपन्न होता है तो राज सत्ता पर उसकी पकड़ होती है। ऐसी स्थिति में समाज में परजीवी वर्ग अप्रभावी हो जाता है और उसका सामाजिक एवं राजनीतिक प्रभुत्व खत्म हो जाता है।

    बौद्ध क्रांति में परजीवी ब्राह्मणों तथा गुंडे -दहशतवादी क्षत्रिय वर्ण का वर्चस्व नष्ट हो गया था। उसे फिर से स्थापित करने के लिए पुष्यमित्रश्रृंग ने बौद्ध राजा बृहद्रथ की हत्या की और ब्राह्मणी सत्ता की  पुनर्स्थापना की। उससे प्रेरणा लेकर देशभर के ब्राह्मण राजा, ब्राह्मण बुद्धिजीवी और ब्राह्मण पुजारी काम पर लग गए। बौद्ध भिक्षुओं का कत्लेआम होने के कारण वे पराभूत मानसिकता में चले गए । परिणामस्वरूप, तत्कालीन सामंती राज्यों पर भिक्खुओं का वर्चस्व खत्म हो गया और ब्राह्मणों का वर्चस्व स्थापित हो गया। ब्राह्मणों के वर्चस्व के भीतर आये राज्यों में एक समान कार्यक्रम देने के लिए मनुस्मृति की रचना की गई। 

     मनुस्मृति का एक ही उद्देश्य था - और वह था जातियों का निर्माण करना,उन जातियों को एक जाति व्यवस्था में संगठित करने के लिए कानून तैयार करना, और उन कानूनों को सख्ती से लागू करने के बारे में मार्गदर्शन देना! जाति व्यवस्था की रचना करते समय मनु ने 'जाति युद्ध' को अवश्यंभावी माना था । क्योंकि किसी भी असमान व्यवस्था में समाज का शोषित-शासित समाज घटक यह अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करेगा ही, यह एक प्राकृतिक नियम है। अत: मनु ने यह मान लिया था कि जाति निर्माण का अर्थ जाति युद्ध ही है।

   यह जाति युद्ध एक तरफा ही रहे इसके लिए मनु ने मनुस्मृति में क्या क्या विधान बनाया? और बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान तैयार करते समय इस एकतर्फी जाति युद्ध को संविधान की मर्यादा में रखकर भी दोतरफा कैसे बनाया? इन सब मुद्दों पर चर्चा हम लेख के तीसरे भाग में करनेवाले हैं। 

 तब तक के लिए जय ज्योति! जयभीम! सत्य की जय हो!

    - प्रो. श्रवण देवरे

संस्थापक-अध्यक्ष,

ओबीसी राजकीय आघाडी


*मराठी से हिंदी अनुवाद-*

*चन्द्रभान पाल*