'स्मरण दिवस' पर विशेष आज का ऐतिहासिक दिन 'रामचरण निषाद' से 'बख्शी राम' तक...

जय वाल्मीकि

'स्मरण दिवस' पर विशेष आज का ऐतिहासिक दिन 'रामचरण निषाद' से 'बख्शी राम' तक...। 

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   बीसवीं सदी के तीसरे दशक की शुरूआत में हिंदू-मुस्लिमों में एक समझौता हुआ कि -"भारत में अस्पृश्यों की एक विशाल जनसंख्या है। अगर उस जनसंख्या को हम (हिंदू-मुस्लिम) आपस में बांट लें तो हमारी संख्या के अनुसार हमें अधिक राजनैतिक हिस्सेदारी मिलेगी।" ये लोग मानते थे कि अस्पृश्य तो हमारे गुलाम हैं, हम जैसे चाहें उन्हें रखेंगे राजनैतिक हिस्सेदारी हमारी होगी। लेकिन उनका ये भ्रम टूटा, जब उनके द्वारा अस्पृश्यों की हकमारी के विरोध में एक चुनौती पुर्ण ललकार उठी। और ये ललकार थी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) के एडवोकेट बाबू रामचरण निषाद की।

    उन्होंने कहा -"भारत के अछूत कोई भेड़-बकरियां नहीं हैं जिन्हें इस तरह बांट लोगे, अछूत भी इसी प्रकार से भारत के नागरिक हैं जैसे हिन्दू और मुस्लिम हैं। इस लिए जिस तरह हिंदू-मुस्लिमों को पृथक अधिकार दिये गए हैं, उसी तरह भारत के अछूतों को भी पृथक अधिकार मिलने चाहिए।" इसके बाद उन्होंने अस्पृश्यों के आधिकारों के लिए पूरे भारत भर में घूम कर अस्पृश्यों को संगठित करना शुरु किया। अपने आंदोलन को घर-घर तक पहुंचाने के लिए उन्होंने निषाद प्रिंटिंग प्रेस खोली जिससे 'आदि हिंदू' नाम से एक मासिक पत्रिका निकालनी शुरू की। इस पत्रिका के माध्यम से ही 1926 में उनका ये आंदोलन पंजाब पहुंचा, जिसे जालन्धर के शिवचरण (जटिया), महात्मा फ़कीर चंद (वाल्मीकि) तथा शादी राम (वाल्मीकि) ने खड़ा किया। और पंजाब में इसे 'आदधर्म' के नाम से आगे बढ़ाया गया। पंजाब से इस आंदोलन का नेतृत्व अस्पृश्यों के दो बड़े समुदायों वाल्मीकि-रविदासी ने किया। अपने अधिकारों के लिए आंदोलित पंजाब के अस्पृश्यों को तथाकथित उच्च जातिय कहे जाने वाले लोगों का बहिष्कार तथा उत्पीड़न झेलना पड़ा, बावजूद इसके वे पीछे नहीं हटे। 1932 में डा.अम्बेडकर दोबारा अस्पृश्यों की मांगें लेकर गोलमेज सम्मेलन में गए। काफ़ी जद्दो-जहद के बाद ब्रिटश सरकार उनकी मांगों से सहमत हुई लेकिन गांधी ने सरकार के निर्णय का विरोध किया और मरण व्रत पर बैठे गए। डा.अम्बेडकर को गांधी से समझौता करना पड़ा तथा गांधी के अनुसार सरकारी निर्णय में कुछ परिवर्तन किए गए।

   24 सितंबर 1932 को इस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए और ये समझौता पूना पैकट के नाम से जाना गया। इस समझौते में ब्रूटिश सरकार द्वारा अस्पृश्यों को दिए अधिकरों को गांधी द्वारा किए गए संशोधनों के साथ स्विकार कर लिया गया। ख़ैर..! जो भी हुआ अस्पृश्य आश्वस्त हुए कि आखिर उन्हें भी अपने ही देश में नागरिक होने के अधिकार प्राप्त हुए, लेकिन वाल्मीकि समुदाय इन अधिकारों वंचित रह गया। चार वर्षों तक वाल्मीकि समुदाय इन अधिकारों से वंचित तथा इन अधिकारों के ना मिलने की बात से अनजान रहा। ना ही वाल्मीकियों को इसके बारे में बताया गया। इसका पता वाल्मीकियों को 1936-1937 के चुनावों से कुछ समय पहले ही लगा, जब उन्हें आरक्षित क्षेत्रों की हदबंदी से बाहर कर दिया गया। इसका कारण ये था कि वाल्मीकि नाम वाल्मीकि समुदाय के बीच धर्म अथवा संप्रदाय के रुप में माना जाता था तथा ब्रिटिश सरकार की शुरुआती जनगणनाओं से ही सरकारी दस्तावेजों में भी इसी रूप में ही दर्ज होता आ रहा था। जब वाल्मीकि प्रतिनिधियों को अस्पृश्यों को मिले अधिकारों से वाल्मीकि समुदाय के वंचित होने का पता चला तो इस समस्या को लेकर वाल्मीकि सभा का एक प्रतिनिधि मंडल बख्शी राम जी के नेतृत्व में शिमला में हदबंदी कमेटी से मिला। वाल्मीकि प्रतिनिधियों द्वारा कमेटी के आगे अपना पक्ष रखा गया। जिसके बाद पूना पैकट समझौते की शर्तों के मुताबिक़ वाल्मीकि समुदाय को अपने आप को वाल्मीकि संप्रदाय की बजाय वाल्मीकि जाति मानने की शर्त पर Government of India Act 1935 के तहत Order in Council की सूचि में अछूतों के रुप में अनूसूचित जातियों में आज ही के दिन 30 अप्रैल 1936 को दर्ज किया गया जिसके बाद हमें हमारे अधिकार मिल पाए।

   उन पुरखों के सामने 'धर्म' या हमारी दशा को सुधारने के लिए 'अधिकार' दोनों में से एक के ही चुनाव का अंतिम विकल्प था, उन्होंने मजबूर होकर समय की आवश्यकता को समझते हुए हमारे लिए हमारे अधिकारों को चुना। हमें आज जो अधिकार प्राप्त हैं इनके पीछे पुरखों का कड़ा संघर्ष और कुर्बानियों भरा इतिहास है, जिसे हमें याद रखना बेहद आवश्यक है ताकि हम इन अधिकारों का सही मूल्य और सदुपयोग समझ सकें।

मनिन्दर टांक

आदि साहित्य संघ

(वाल्मीकि आंदोलन)