मथुरा, उत्तर प्रदेश (Mathura, Uttar Pradesh), एकलव्य मानव संदेश (Eklavya Manav Sandesh) ब्यूरो रिपोर्ट, 5 दिसम्बर 2019।
समर्थक बनिए, चाटुकार, गुलाम और रखैल नहीं-महेंद्र सिंह निषाद
प्राचीन काल में जब मैं छोटा था, तब चुनावी सीजन में कुकरमुत्तों की तरह उग आने वाले नेताओं की गाड़ियों के पीछे भागा करता था। क्योंकि वे रंग बिरंगी कागज की परचियाँ लुटाया करते थे। कोई गाड़ी कमल के फूल वाली परचियाँ लुटाया करता था, कोई हाथ के निशान वाला, तो कोई किसी और रंग व निशान वाला।
हम सब बच्चे दिन भर लूटने में व्यस्त रहते और शाम को बैठकर गिनती करते कि किसने कितना लूटा। जिसके पास सबसे ज्यादा, वह सबसे अमीर।तो वही हमारे लिए खजाना हुआ करता था। फिर लूट का माल हम उड़ा दिया करते थे रॉकेट बनाकर या फिर जल को अर्पित कर देते थे उन पर्चियों की नाव बनाकर। क्योंकि उस जमाने में मान्यता थी कि लूट का माल घर में नहीं रखना चाहिए।
तब तक हमें पता ही नहीं था कि कोंग्रेसी होना या भाजपाई होने का मतलब क्या होता है। फिर थोड़े बड़े हुए तो पता चला कि कॉंग्रेस के समर्थकों को कोंग्रेसी कहते हैं और भाजपा के समर्थकाओं को भाजपाई कहते हैं।
बरसों बाद समझ में आया कि कोंग्रेसी, भाजपाई, सफाई, बसपाई.... होना बिलकुल वैसा ही, जैसे हिन्दू, मुस्लिम, संघी, मुसंघी, बजरंगी या फिर रखैल पत्रकार होना। ये नेता तो चुन सकते हैं, ये पार्टियां तो चुन सकते हैं, लेकिन उनसे प्रश्न पूछने, उन्हें कटघरों मे खड़े करने की औकात नहीं होती। इन्हें गुलामों की तरह ही जीना होता है और अपने नेताओं के इशारों पर विपक्षी नेताओं पर भौंकना है या फिर काटने के लिए दौड़ पड़ना है।
सदैव स्मरण रखें- किसी भी नेता या पार्टी का समर्थक होना और गुलाम या रखैल होने में जमीन आसमान का अंतर होता है। समर्थक नेता इसलिए चुनता है क्योंकि उसे उस नेता से अपेक्षाएँ होती हैं कि वह नेता समस्याओं का समाधान करेगा। यदि नेता समाधान नहीं करता, लूट खसोट मे व्यस्त हो जाता है, तो समर्थक यह अधिकार रखता है कि उससे कॉलर पकड़कर सवाल करे यदि वह नेता सुन पाने मे अक्षम हो जाता है। जबकि गुलाम और रखैल अपने नेताओं के सामने मुँह खोलने की भी हिम्मत नहीं करते। इनकी स्थिति उस मालिक सी हो जाती है, जो मोटी तनखा पर मैनेजर रखता है लेकिन उससे हिसाब किताब नहीं पूछ सकता। उल्टे मैनेजर ही इनसे हिसाब किताब मांगता है, तय करता है कि इन्हें अपने अकाउंट से कितने पैसे रोजाना निकालना है, कैसे खर्च करना है। लेकिन मैनेजर कितने भी पैसे निकाल सकता है, कहीं भी उड़ा सकता है.... मालिक को अधिकार नहीं पूछने का।
अतः समर्थक बनिए, चाटुकार, गुलाम और रखैल नहीं !!
समर्थक बनिए, चाटुकार, गुलाम और रखैल नहीं-महेंद्र सिंह निषाद
प्राचीन काल में जब मैं छोटा था, तब चुनावी सीजन में कुकरमुत्तों की तरह उग आने वाले नेताओं की गाड़ियों के पीछे भागा करता था। क्योंकि वे रंग बिरंगी कागज की परचियाँ लुटाया करते थे। कोई गाड़ी कमल के फूल वाली परचियाँ लुटाया करता था, कोई हाथ के निशान वाला, तो कोई किसी और रंग व निशान वाला।
हम सब बच्चे दिन भर लूटने में व्यस्त रहते और शाम को बैठकर गिनती करते कि किसने कितना लूटा। जिसके पास सबसे ज्यादा, वह सबसे अमीर।तो वही हमारे लिए खजाना हुआ करता था। फिर लूट का माल हम उड़ा दिया करते थे रॉकेट बनाकर या फिर जल को अर्पित कर देते थे उन पर्चियों की नाव बनाकर। क्योंकि उस जमाने में मान्यता थी कि लूट का माल घर में नहीं रखना चाहिए।
तब तक हमें पता ही नहीं था कि कोंग्रेसी होना या भाजपाई होने का मतलब क्या होता है। फिर थोड़े बड़े हुए तो पता चला कि कॉंग्रेस के समर्थकों को कोंग्रेसी कहते हैं और भाजपा के समर्थकाओं को भाजपाई कहते हैं।
बरसों बाद समझ में आया कि कोंग्रेसी, भाजपाई, सफाई, बसपाई.... होना बिलकुल वैसा ही, जैसे हिन्दू, मुस्लिम, संघी, मुसंघी, बजरंगी या फिर रखैल पत्रकार होना। ये नेता तो चुन सकते हैं, ये पार्टियां तो चुन सकते हैं, लेकिन उनसे प्रश्न पूछने, उन्हें कटघरों मे खड़े करने की औकात नहीं होती। इन्हें गुलामों की तरह ही जीना होता है और अपने नेताओं के इशारों पर विपक्षी नेताओं पर भौंकना है या फिर काटने के लिए दौड़ पड़ना है।
सदैव स्मरण रखें- किसी भी नेता या पार्टी का समर्थक होना और गुलाम या रखैल होने में जमीन आसमान का अंतर होता है। समर्थक नेता इसलिए चुनता है क्योंकि उसे उस नेता से अपेक्षाएँ होती हैं कि वह नेता समस्याओं का समाधान करेगा। यदि नेता समाधान नहीं करता, लूट खसोट मे व्यस्त हो जाता है, तो समर्थक यह अधिकार रखता है कि उससे कॉलर पकड़कर सवाल करे यदि वह नेता सुन पाने मे अक्षम हो जाता है। जबकि गुलाम और रखैल अपने नेताओं के सामने मुँह खोलने की भी हिम्मत नहीं करते। इनकी स्थिति उस मालिक सी हो जाती है, जो मोटी तनखा पर मैनेजर रखता है लेकिन उससे हिसाब किताब नहीं पूछ सकता। उल्टे मैनेजर ही इनसे हिसाब किताब मांगता है, तय करता है कि इन्हें अपने अकाउंट से कितने पैसे रोजाना निकालना है, कैसे खर्च करना है। लेकिन मैनेजर कितने भी पैसे निकाल सकता है, कहीं भी उड़ा सकता है.... मालिक को अधिकार नहीं पूछने का।
अतः समर्थक बनिए, चाटुकार, गुलाम और रखैल नहीं !!