सबसे पहले जेनएयू पर हुए आतंकी हमले पर जश्न मनाने वालों के सरनेम पढ़िए, "शुक्ला, दुबे, चतुर्वेदी, जादौन, तोमर, चौधरी, राजपूत, गुर्जर, पांडे, त्रिवेदी, त्रिपाठी, सिंह, मिश्रा, शर्मा" आदि ही क्यों हैं ? आपने सोचा ?
अहीर क्यों नहीं है ? जाटव क्यों नहीं है ? कुम्हार क्यों नहीं है ? वाल्मीकि क्यों नहीं है ? नाई क्यों नहीं है ? धोबी क्यों नहीं है ? मीणा क्यों नहीं है ? निषाद क्यों नहीं ?
दरअसल इस देश का सड़ चुका "अपरकास्टवाद" हिंदूवाद के भेष में आपके घरों, विश्विद्यालयों में पहुंच चुका है। राष्ट्रवाद और हिंदूवाद की आड़ में ये लड़ाई, ऊंची जातियों के वर्चस्व को बचाने के अंतिम प्रयास भर हैं!
मीडिया के सारे कर्मचारी ब्राह्मण हैं, सारे एडिटर, सम्पादक ब्राह्मण जाति से हैं। इस तरह 90 प्रतिशत मीडिया कर्मचारियों पर ब्राह्मणों का कब्जा है, लेकिन इन टीवी चैनलों के मालिक बनिया और जैन हैं, व्यापारी हैं, कारोबारी हैं, इसके अलावा आप एक बात पर और गौर करिए 5 जनवरी 2020 को जेनएयू छात्रों को पीटने के लिए डीयू से जो टोली भेजी गई, वह अधिकतर "जाट, गुर्जर और राजपूतों" की टोली थी।
आप इस क्रोनोलॉजी को कुछ समझे?
मालिक-निवेशक "बनिया" हैं, कर्मचारी-प्रबंधक "ब्राह्मण" हैं, और लठैत-सिपाही "जाट-ठाकुर-गुर्जर" हैं। आप इस गठजोड़ को समझ लीजिए। ये गठजोड़ ही आधुनिक भारतीय समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था है। इसी तरह के गठजोड़ द्वारा एक पूरे समाज पर वर्चस्व स्थापित किया जाता है।
अब सरकार पर आइए, आपका प्रधानमंत्री बनिया है, गृहमंत्री जैन कारोबारी है, मंत्री ब्राह्मण हैं, सचिव ब्राह्मण हैं, झंडा ढोने के लिए राजपूत हैं, नारे लगाने के लिए जाट हैं।
अब आप जेनएयू की घटना को एक घटना भर से जोड़कर मत देखिए कि अचानक से कोई नकाबपोश आए, लड़कियों पर हमला किया और चले गए, बल्कि ये घटना एक प्रक्रिया का हिस्सा है, एक पूरी सीरीज है, जिसका ये एक एपिसोड भर है। आपके हाथ से जो निकल चुका है "जेएनयू छात्रों" पर' हमला उसका पहला प्रदर्शन भर है। ये बताने के लिए ये देश क्या खो चुका है, उसी प्रक्रिया का ये एक छोटा सा हिस्सा है।
अब प्रकिया क्या है वह भी समझिए, ऊंची जातियां संख्या बल में कम हैं, इसलिए सीधे-सीधे ब्राह्मणवाद, राजपूतवाद से जीता नहीं जा सकता, इसलिए ऊंची जातियों के मास्टरों ने "हिंदूवाद" ईजाद किया, हिंदूवाद का समर्थन करने के लिए अब कुछ संख्या में यादव जी, निषाद जी, कुमार जी भी मिल गए, "हिंदूवाद" के इस सफल प्रयोग से "सवर्णवाद" जो कि संख्या में अल्पसंख्यक था अब वह बहुमत में पहुंच गया। अब सवर्णवाद के इस बहुमत को बनाए रखने के "हिंदूवाद" अपरिहार्य और अनिवार्य हो गया। हिंदूवाद को बनाए रखने के लिए समाज का बंटवारा जरूरी था, इसलिए एक कॉमन दुश्मन बनाया गया, वह बनाया गया "मुसलमान",
मुसलमान इसलिए क्योंकि मुसलमान को लेकर इस समाज में पहले से ही पर्याप्त शंका और पूर्वाग्रह था। इसलिए दुश्मन घोषित करने में श्रम भी न लगना था, और ये ऐसी लड़ाई थी जो कभी खत्म भी न होनी थी। जबतक मुसलमान हैं, तबतक "हिंदूवाद" के नामपर आराम से चुनावों में उतरा जा सकता है।
अब समझिए एनआरसी, सीएबी, पाकिस्तान, ट्रिपल तलाक, अकबर बनाम महाराणा प्रताप की डिबेट में क्या कॉमन था ? सिर्फ मुसलमान ही न!
अब लगे रहिए हिन्दू-मुसलमान में, हिंदुओं के गरीब मजदूर, किसान, अनपढ़ तबके को ऊपर-ऊपर से लगता है कि मुसलमान ठिकाने लगाया जा रहा है, बल्कि ये पूरे प्रयास अपरकास्ट अमीरों को बचाने के लिए हैं, जिसे समझना एक धर्मभीरु आदमी के लिए आसान नहीं है।
जिसका खून पिया जाएगा वह गरीब और कमजोर होंगे जोकि इस देश में अधिकतर खुद हिन्दू ही हैं। उनमें भी पिछड़े, आदिवादी, वंचित... मजे करेगा कौन ? आंसर है अपरकास्ट वर्ग का अमीर वर्ग ! याद रहे... अपरकास्ट का गरीब भी नहीं, अपरकास्ट का किसान, मजदूर भी नहीं...
अब समझ में आया ? ये सारे प्रयास ऊंची जातियों के एकछत्र वर्चस्व को दोबारा से स्थापित करने के प्रयास हैं। जो वर्चस्व कथित नीची जातियों, कमजोरों, मजदूरों के बच्चों के यूनिवर्सिटियों में पहुंचने से धीरे धीरे ढीला होता जा रहा था। असल में इन्हें पढ़े लिखे उन ब्राह्मणों, राजपूतों, बनियाओं से भी दिक्कत है जो इनकी जातियों, वर्णाश्रम व्यवस्था को नहीं मानते। जो भेदभाव के खिलाफ लगातार लिख रहे हैं, बोल रहे हैं। मेरे ऐसे तमाम ब्राह्मण दोस्त हैं, राजपूत दोस्त हैं जिन्हें उनके घरवालों ने देशद्रोही और मुसलमान कहना शुरू कर दिया है।
यही कारण है कि सरकार बनते ही सबसे पहले दिन से ही शिक्षण संस्थानों को सबसे पहले खत्म किया जा रहा है। इसी लिए फीस बढ़ाई जाती है, इसलिए प्राइवेटाइजेशन किया जाता है। ताकि मजलूमों, कमजोरों, दलितों, पिछड़ों के बच्चे स्कूल न पहुंच पाएं, एक अंबेडकर ही पहुंच गया था तो उसने सवर्णवाद, हिंदूवाद की दम निकाल दी थी, अब तो हर विश्विद्यालयों में अंबेडकर पहुंच रहा है। जेएनयू पर हुए हमले को इसी दीर्घ परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है,
आपको क्या लगता है कि एकलव्य का अंगूठा काटने वाला द्रोणाचार्य सिर्फ कहानियों में था ?
-श्याम मीरा सिंह
अहीर क्यों नहीं है ? जाटव क्यों नहीं है ? कुम्हार क्यों नहीं है ? वाल्मीकि क्यों नहीं है ? नाई क्यों नहीं है ? धोबी क्यों नहीं है ? मीणा क्यों नहीं है ? निषाद क्यों नहीं ?
दरअसल इस देश का सड़ चुका "अपरकास्टवाद" हिंदूवाद के भेष में आपके घरों, विश्विद्यालयों में पहुंच चुका है। राष्ट्रवाद और हिंदूवाद की आड़ में ये लड़ाई, ऊंची जातियों के वर्चस्व को बचाने के अंतिम प्रयास भर हैं!
मीडिया के सारे कर्मचारी ब्राह्मण हैं, सारे एडिटर, सम्पादक ब्राह्मण जाति से हैं। इस तरह 90 प्रतिशत मीडिया कर्मचारियों पर ब्राह्मणों का कब्जा है, लेकिन इन टीवी चैनलों के मालिक बनिया और जैन हैं, व्यापारी हैं, कारोबारी हैं, इसके अलावा आप एक बात पर और गौर करिए 5 जनवरी 2020 को जेनएयू छात्रों को पीटने के लिए डीयू से जो टोली भेजी गई, वह अधिकतर "जाट, गुर्जर और राजपूतों" की टोली थी।
आप इस क्रोनोलॉजी को कुछ समझे?
मालिक-निवेशक "बनिया" हैं, कर्मचारी-प्रबंधक "ब्राह्मण" हैं, और लठैत-सिपाही "जाट-ठाकुर-गुर्जर" हैं। आप इस गठजोड़ को समझ लीजिए। ये गठजोड़ ही आधुनिक भारतीय समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था है। इसी तरह के गठजोड़ द्वारा एक पूरे समाज पर वर्चस्व स्थापित किया जाता है।
अब सरकार पर आइए, आपका प्रधानमंत्री बनिया है, गृहमंत्री जैन कारोबारी है, मंत्री ब्राह्मण हैं, सचिव ब्राह्मण हैं, झंडा ढोने के लिए राजपूत हैं, नारे लगाने के लिए जाट हैं।
अब आप जेनएयू की घटना को एक घटना भर से जोड़कर मत देखिए कि अचानक से कोई नकाबपोश आए, लड़कियों पर हमला किया और चले गए, बल्कि ये घटना एक प्रक्रिया का हिस्सा है, एक पूरी सीरीज है, जिसका ये एक एपिसोड भर है। आपके हाथ से जो निकल चुका है "जेएनयू छात्रों" पर' हमला उसका पहला प्रदर्शन भर है। ये बताने के लिए ये देश क्या खो चुका है, उसी प्रक्रिया का ये एक छोटा सा हिस्सा है।
अब प्रकिया क्या है वह भी समझिए, ऊंची जातियां संख्या बल में कम हैं, इसलिए सीधे-सीधे ब्राह्मणवाद, राजपूतवाद से जीता नहीं जा सकता, इसलिए ऊंची जातियों के मास्टरों ने "हिंदूवाद" ईजाद किया, हिंदूवाद का समर्थन करने के लिए अब कुछ संख्या में यादव जी, निषाद जी, कुमार जी भी मिल गए, "हिंदूवाद" के इस सफल प्रयोग से "सवर्णवाद" जो कि संख्या में अल्पसंख्यक था अब वह बहुमत में पहुंच गया। अब सवर्णवाद के इस बहुमत को बनाए रखने के "हिंदूवाद" अपरिहार्य और अनिवार्य हो गया। हिंदूवाद को बनाए रखने के लिए समाज का बंटवारा जरूरी था, इसलिए एक कॉमन दुश्मन बनाया गया, वह बनाया गया "मुसलमान",
मुसलमान इसलिए क्योंकि मुसलमान को लेकर इस समाज में पहले से ही पर्याप्त शंका और पूर्वाग्रह था। इसलिए दुश्मन घोषित करने में श्रम भी न लगना था, और ये ऐसी लड़ाई थी जो कभी खत्म भी न होनी थी। जबतक मुसलमान हैं, तबतक "हिंदूवाद" के नामपर आराम से चुनावों में उतरा जा सकता है।
अब समझिए एनआरसी, सीएबी, पाकिस्तान, ट्रिपल तलाक, अकबर बनाम महाराणा प्रताप की डिबेट में क्या कॉमन था ? सिर्फ मुसलमान ही न!
अब लगे रहिए हिन्दू-मुसलमान में, हिंदुओं के गरीब मजदूर, किसान, अनपढ़ तबके को ऊपर-ऊपर से लगता है कि मुसलमान ठिकाने लगाया जा रहा है, बल्कि ये पूरे प्रयास अपरकास्ट अमीरों को बचाने के लिए हैं, जिसे समझना एक धर्मभीरु आदमी के लिए आसान नहीं है।
जिसका खून पिया जाएगा वह गरीब और कमजोर होंगे जोकि इस देश में अधिकतर खुद हिन्दू ही हैं। उनमें भी पिछड़े, आदिवादी, वंचित... मजे करेगा कौन ? आंसर है अपरकास्ट वर्ग का अमीर वर्ग ! याद रहे... अपरकास्ट का गरीब भी नहीं, अपरकास्ट का किसान, मजदूर भी नहीं...
अब समझ में आया ? ये सारे प्रयास ऊंची जातियों के एकछत्र वर्चस्व को दोबारा से स्थापित करने के प्रयास हैं। जो वर्चस्व कथित नीची जातियों, कमजोरों, मजदूरों के बच्चों के यूनिवर्सिटियों में पहुंचने से धीरे धीरे ढीला होता जा रहा था। असल में इन्हें पढ़े लिखे उन ब्राह्मणों, राजपूतों, बनियाओं से भी दिक्कत है जो इनकी जातियों, वर्णाश्रम व्यवस्था को नहीं मानते। जो भेदभाव के खिलाफ लगातार लिख रहे हैं, बोल रहे हैं। मेरे ऐसे तमाम ब्राह्मण दोस्त हैं, राजपूत दोस्त हैं जिन्हें उनके घरवालों ने देशद्रोही और मुसलमान कहना शुरू कर दिया है।
यही कारण है कि सरकार बनते ही सबसे पहले दिन से ही शिक्षण संस्थानों को सबसे पहले खत्म किया जा रहा है। इसी लिए फीस बढ़ाई जाती है, इसलिए प्राइवेटाइजेशन किया जाता है। ताकि मजलूमों, कमजोरों, दलितों, पिछड़ों के बच्चे स्कूल न पहुंच पाएं, एक अंबेडकर ही पहुंच गया था तो उसने सवर्णवाद, हिंदूवाद की दम निकाल दी थी, अब तो हर विश्विद्यालयों में अंबेडकर पहुंच रहा है। जेएनयू पर हुए हमले को इसी दीर्घ परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है,
आपको क्या लगता है कि एकलव्य का अंगूठा काटने वाला द्रोणाचार्य सिर्फ कहानियों में था ?
-श्याम मीरा सिंह