बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष लेख

एकलव्य मानव संदेश (Eklavya Manav Sandesh)। बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष लेख।
    इस वर्ष बुद्ध पूर्णिमा 7 मई 2020 को मनाई जयेगी। ऐसा माना जाता है कि तथागत गौतम बुद्ध का जन्म, उनको ज्ञान प्राप्ति  और उनका महापरिनिर्वाण तीनों एक ही दिन हुए थे। यह भी एक विचित्र संयोग ही है। बुद्ध की शिक्षाएं पूरे संसार मे फैलीं जो मानव कल्याण से परिपूर्ण हैं। जिनके द्वारा संसार के विभिन देशों ने खूब तरक्की की। बुद्ध की इन्ही शिक्षाओं के कारण ही भारत को विश्वगुरु कहा जाता है। आधुनिक भारत में बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के द्वारा उनकी शिक्षाएं पुनः स्थापिय हुँईं। बाबा साहब के प्रयास से ही राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति के आसन के ठीक ऊपर लिखा है, "धम्म चक्र प्रवर्तनाय"। इस "धम्म चक्र प्रवर्तनाय" का क्या मतलब है ? धम्म चक्र प्रवर्तन, सारनाथ में पांच ब्राह्मणों को बुद्ध का दिया हुआ उपदेश है। इसके महत्व का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि यह राष्ट्रपति भवन में, राष्ट्रपति के सिंहासन के ठीक ऊपर लिखा है। सम्राट अशोक की लाट का शीर्ष भाग भारत की मुद्रा में, भारत के राजपत्र पर, शासन के आदेश पत्रों पर मुद्रित है और  अशोक की लाट में जो चक्र बना है, वह नेशनल फ्लैग की शोभा बढ़ा रहा है। भारत के संविधान की जो उद्देशिका है वह भी बुद्ध का ही संदेश है। जो संविधान की बुनियाद है। जिस तरह बुद्ध कहते हैं कि मरने के बाद क्या होता है ? इससे मेरा कोई लेना देना नहीं। उसी तरह भारत के संविधान को भी आदमी के मरने के बाद क्या होता है ? कोई लेना देना नहीं। इस पृथ्वी पर रहते हुये मानव को, मानव के साथ मानवता का व्यवहार करना होगा। नहीं करेगा तो वहां से भारत के संविधान का हस्तक्षेप प्रारम्भ हो जाता है। 
    धम्म चक्र प्रवर्तन क्या है ? यह सारनाथ में पांच ब्राह्मण परिब्राजकों को बुद्ध के द्वारा दिया गया उपदेश है। जब बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ तब उन्होंने विचार किया कि मैं सबसे पहले किसको बताऊं ? इस उधेड़ बुन में सबसे पहले उनके दिमाग में अलार कलाम का नाम आया जो महान दार्शनिक कपिल का शिष्य था। किन्तु पता चला कि अब वह इस दुनियां में नहीं हैं। फिर उद्दक रामपुत का नाम दिमाग में आया जो उस जमाने में प्राणायाम का जाना माना विद्वान था। किन्तु पता चला, वह भी इस दुनियां में नहीं हैं। तब उनके दिमाग में उन पांच ब्राह्मणों का नाम आया, जिनको  छोड़कर वो जा चुके थे। जब उनके विषय में जानकारी प्राप्त की तो मालूम हुआ कि वे सारनाथ में ठहरे हैं। इसलिये बुद्ध सारनाथ की ओर चल दिये। बुद्ध को दूर से ही आता देख पांचों ब्राह्मणों को गुस्सा आया। उन्होंने मन में ठाना कि कोई उसका आदर सत्कार नहीं करेगा। वह बैठना होगा तो बैठेगा। नहीं बैठना होगा तो चला जायेगा। लेकिन जैसे ही बुद्ध उनके करीब पहुंचे, उनका दृढ़ निष्चय डांवाडोल हो गया और वे उनके सत्कार में जुट गये। कोई आसन बिछाने में लग गया। कोई पानी लाने में लग गया। कोई पांव प्रक्षालन के लिये आवश्यक सामग्री जुटाने में लग गया। सब आदर सत्कार में जुट गये । योग्य आदर सत्कार के बाद कुशल क्षेम पूछा। तदनंतर ब्राह्मणों ने बुद्ध से पूछा। क्या आपने तपस्या और काय क्लेश का मार्ग छोड़ दिया है ? तब बुद्ध ने उनको जो  उत्तर दिया, वहीं से बुद्ध का "धम्म चक्र प्रवर्तन" प्रारम्भ हो जाता है -
         बुद्ध ने कहा, काय क्लेश और तपस्या का मार्ग, दो सिरे की बातें हैं। दो किनारों की बातें हैं। एक संसार के सुख के लिये काम भोग का जीवन। काम भोग की त्रृष्णा और दूसरा स्वर्ग सुख के लिये अथवा पुनर्जन्म न होने के लिये काय क्लेश का जीवन। काय क्लेश की त्रृष्णा। उन्होंने दोनों को आदमी की शान के योग्य नहीं माना। इन दोनों अतियों के बीच एक मध्यम मार्ग है। बीच का रास्ता। मैं उसी मध्यम मार्ग का उपदेष्टा हूँ। उन्होंने कहा, शरीर की स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति में कोई बुराई नहीं है। शरीर को स्वस्थ बनाये रखना एक कर्तव्य है। अन्यथा तुम अपने मनोबल को दृढ़ बनाये न रख सकोगे। और प्रग्या रूपी प्रदीप भी प्रज्वलित न रह सकेगा। ब्राह्मणों के यह पूछने पर कि जब हम आपका साथ छोड़कर चले आये तब आप कहां कहां गये ? क्या क्या किये ? तब उन्होंने बताया। कैसे चार सप्ताह की निरंतर समाधि के बाद, गया में पीपल के बृक्ष के नीचे, नया बोध प्राप्त हुआ। जिससे वे नये मार्ग का अविष्कार कर सके। यह सुनकर नया मार्ग जानने के लिये उत्सुक परिब्राजकों की प्रार्थना स्वीकार कर बुद्ध ने कहा, पहली बात उनके धम्म को आत्मा परमात्मा से कुछ लेना देना नहीं। उनके धम्म को मरने के बाद आत्मा का क्या होता है ? इससे कोई सरोकार नहीं। मेरे धम्म का केन्द्र बिन्दु है आदमी। इस पृथ्वी पर रहते समय आदमी का आदमी के प्रति क्या कर्त्तव्य होना चाहिए ? यह उनकी पहली स्थापना है। उनकी दूसरी स्थापना है कि आदमी दुखी है। कष्ट में है। दरिद्रता का जीवन व्यतीत कर  रहा है। संसार दुख से भरा है। यह सब अविद्या के ही कारण। आदमी अविद्या के कारण अकुशल कर्म करता है और दु:ख भोगता है। अविद्या के कारण शोषण का शिकार होता है और दरिद्रता का जीवन व्यतीत करता है और दु:ख भोगता है। धम्म का उद्देश्य इस दु:ख का नाश करना है। इसके अतिरिक्त धम्म और कुछ भी नहीं है। दु:ख के अस्तित्व की स्वीकृति और दु:ख के नाश का उपाय - यही धम्म की आधार शिला है। परिब्राजकों ने पूछा, दु:ख और दु:ख का विनाश ही आपके धम्म की आधार  शिला है तो हमें बताइये। कैसे धम्म दु:ख का नाश कर सकता है ? तब बुद्ध ने समझाया कि उनके धम्म के अनुसार यदि मनुष्य पवित्रता के पथ पर चले। धम्म के पथ पर चले। शील मार्ग पर चले तो दु:ख का एकान्तिक निरोध हो सकता है। जब परिब्राजकों ने धम्म की व्याख्या करने की प्रार्थना की तो उन्होंने सबसे पहले पवित्रता का पथ - पंचशील के अनुसरण का उपदेश दिया - 
       उन्होंने कहा आदमी अविद्या के कारण अकुशल कर्म करता है और दुख भोगता है। उन्होंने इससे विरत रहने का उपदेश दिया जैसे -
1. किसी प्राणी की हिंसा न करना 2. चोरी न करना 3. व्यभिचार न करना 4. असत्य न बोलना 5. नशीली चीजें ग्रहण न करना। इन पांच पंचशीलों के अनुसरण का उपदेश दिया ।
       दूसरा बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग पर चलने का उपदेश दिया  - 
1.सम्यक दृष्टि। अविद्या का नाश ही सम्यक दृष्टि का उद्देश्य है। 2. सम्यक संकल्प, 3.सम्यक वाणी, 4. सम्यक कर्मांत, 5. सम्यक आजीविका, 6. सम्यक व्यायाम, 7. सम्यक स्मृति, 8. सम्यक समाधि। 
          निर्वाण अष्टांगिक मार्ग के अतिरिक्त कुछ नहीं। निर्दोष जीवन का ही दूसरा नाम निर्वाण है। 
        तीसरा शील मार्ग पर चलने का उपदेश दिया - ये शील दस हैं -
             (1) शील, (2) दान, (3) उपेक्षा, (4) नैषक्रम्य, (5) वीर्य, (6) शांति, (7) सत्य, (8) अधिष्ठान, (9) करूणा, और (10) मैत्री पर चलने का उपदेश दिया ।
       संसार के इतिहास में इससे पहले किसी ने भी कभी मोक्ष का यह अर्थ नहीं किया कि वह एक ऐसा सुख है जिसे आदमी धम्मानुसार जीवन व्यतीत करने से, अपने ही प्रयत्न द्वारा यहीं, इसी पृथ्वी पर प्राप्त कर सकता है। यही संक्षेप में थम्म चक्र प्रवर्तन है। 
         कुछ बौद्धिष्ट अष्टांगिक मार्ग को ही मध्यम मार्ग कहते हैं। जबकि बुद्ध ने दो अतियों के बीच के मार्ग को माध्यम मार्ग बताया है। सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि में कैसा मध्यम मार्ग ? जब सभी सम्यक ही हैं। कुछ बौद्धिष्ट जन्म मरण को ही दुख कहते हैं और जन्म मरण से मुक्ति को निर्वाण कहते हैं। जैसे भुना चना अंकुर नहीं ले सकता वैसे ही निर्वाण प्राप्त व्यक्ति जन्म नहीं ले सकता और जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। जबकि बुद्ध स्वयं कहते हैं कि मरने के बाद क्या होता है ? इससे मेरा कोई लेना देना नहीं। बुद्ध पुर्णिमा के अवसर पर  हमारा यही निवेदन है कि बुद्ध के बताए मार्ग पर चलने का, उनका अनुसरण करने का तथा उनकी शिक्षाओं के प्रचार प्रसार करने का संकल्प ले। इन्हीं शब्दों के साथ महा मानव तथागत गौतम बुद्ध को सादर कोटि कोटि नमन करता हूँ।
डॉ. जी. सिंह कश्यप (एसोसिएट प्रोफेसर, पी जी कॉलेज गाजीपुर)