महाराष्ट्र के कसबा - चिंचवड उपचुनाव का बोधामृत: ब्राह्मणी- अब्राम्हणी, ओबीसी, वंचित बहुजन आघाडी, एन- कलाटे, आनंद दवे वगैरह (लेखक- प्रो. श्रावण देवरे)
पहले उपचुनावों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता था, लेकिन अभी हाल में हुए महाराष्ट्र के कसबा व चिंचवड विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव युद्ध स्तर पर लड़े गए। दोनों उपचुनावों में सभी पार्टियों के सेनापति - सरदार से लेकर राजा और वजीर तक सारे महारथियों ने सबकुछ दांव पर लगाकर चुनाव लड़ा और लड़ाया।
जिन पार्टियों के उम्मीदवार नहीं थे उन पार्टियों के सर्वोच्च पदाधिकारियों ने भी जी तोड़ मेहनत की। सभी नेताओं के रोज - रोज रणभेरी बजाने एवं ललकारने से जनता में भी जोश आ गया था, उसने भी उत्साहपूर्वक मतदान करके मतदान का आंकड़ा जनरल इलेक्शन के स्तर तक पहुंचा दिया। आमतौर पर उपचुनावों में जनता भी उदासीन रहती है, इसलिए जनरल इलेक्शन की अपेक्षा, उपचुनावों में मतदान का आंकड़ा हमेशा कम ही रहता है।
परंतु तुलनात्मक आंकड़ा देखें तो इस उपचुनाव में जनता ने लगभग उतना ही मतदान किया, जितना जनरल इलेक्शन में किया था।
2019 के विधानसभा चुनाव में कसबा मतदान क्षेत्र में 51.54 प्रतिशत वोट पड़े थे, वहीं अभी के उपचुनाव में 50.06 प्रतिशत वोट पड़े।
चिंचवड विधानसभा क्षेत्र में 2019 के चुनाव में 53.59 प्रतिशत वोटिंग हुई थी वहीं 2023 के उपचुनाव में 50.57 प्रतिशत वोटिंग हुई।
किसी भी सार्वजनिक घटना से कोई न कोई शिक्षा मिलती है, इस उपचुनाव की घटना से भी कुछ बोधामृत की कुछ बूंदें मिलती हैं क्या ? यह देखते हैं !
1) उपचुनाव भी जब युद्ध स्तर पर लड़े जांय, तब उससे भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ, ऐसा समझा जाय क्या?
उत्तर है 'नहीं'! केवल चुनाव कर लेने से लोकतंत्र स्थापित नहीं हो जाता। हिटलर के जर्मनी व साम्यवादियों के रशिया- चीन में भी चुनाव होते रहते हैं, परंतु वहाँ कभी लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब, दो या उससे अधिक विचारधारा के आधार पर राजनीतिक पार्टियां चुनाव लड़ती हैं।
भारत की मुख्य राजनीतिक पार्टियां ब्राह्मणी छावनी का प्रतिनिधित्व करती हैं, इसलिए एक ही मूलभूत विचारधारा की राजनीतिक पार्टियां, एक दूसरे को शत्रु की तरह, झूठा आभास कराती हैं और जनता उसे सच मानकर अपने मताधिकार का प्रयोग करती रहती है।
भारत में आज दो ही मुख्य विचारधारा हैं, एक जातिव्यवस्था की समर्थक ब्राह्मणी विचारधारा और दूसरी जाति अंतक अब्राह्मणी विचारधारा। सत्ता के करीब रही अधिकतर पार्टियां ब्राह्मणी छावनी का प्रतिनिधित्व करती हैं।
खुद को प्रगतिशील एवं क्रांतिकारी मानने वाली फुले अंबेडकर वादी व मार्क्सवादी पार्टियां भी जैसे तैसे इन्हीं प्रस्थापित पार्टियों की पूंछ पकड़कर अपना अस्तित्व टिकाए हुए हैं। एकमात्र पूर्ण अपवाद है तो वह है तमिलनाडु की डीएमके ओबीसी पार्टी का और अंशतः लालू- मुलायम की ओबीसी पार्टी का।
सांस्कृतिक स्तर पर जनता का ध्रुवीकरण ब्राह्मणी- अब्राह्मणी करने से तमिलनाडु की अब्राह्मणी जनता ने ओबीसी के नेतृत्व में अपनी अब्राह्मणी पार्टी खड़ी किया है। इसलिए तमिलनाडु में ब्राह्मणी छावनी अक्षरशः पराभूत जीवन जी रही है। बिहार व उप्र में जनता की राजनीतिक स्तर पर ब्राह्मणी - अब्राह्मणी ध्रुवीकरण होने के कारण वहाँ के ओबीसी के नेतृत्व में लालू- मुलायम की पार्टियां खड़ी हैं और वे पार्टियां ब्राह्मणी छावनी को सीना तान कर चुनौती दे रही हैं।
जिस दिन बिहार व उप्र की ओबीसी पार्टियां, सांस्कृतिक स्तर पर ब्राह्मणी - अब्राह्मणी ध्रुवीकरण शुरू करेंगी, उस दिन वहाँ की दलित जनता मायावती एवं पासवान को छोड़कर तमिलनाडु के दलितों की तरह ओबीसी नेतृत्व को स्वीकार कर लेंगी।
2) महाराष्ट्र की फुले आंबेडकरवादी कहलाने वाली पार्टियां संघ- भाजपा की पूंछ पकड़कर अपना राजनीतिक अस्तित्व दिखाने का प्रयास करती हैं. कम्युनिस्ट पार्टियां कभी कांग्रेस तो कभी राष्ट्रवादी कांग्रेस की पूंछ पकड़ती हैं. इसलिए महाराष्ट्र की जनता का भी राजनीतिक रूप से ब्राह्मणी- अब्राह्मणी ध्रुवीकरण नहीं होता.
*ध्रुवीकरण ही नहीं होगा तो तुम्हारा कोई भी राजनीतिक विकल्प खड़ा हो ही नहीं सकता.*
इसलिए कांग्रेस को पराभूत करने के लिए कभी भाजपा की पूंछ पकड़ना और कभी भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस की पूंछ पकड़ना!
3) इस उपचुनाव के विश्लेषण में 'कलाटे' व 'न- कलाटे' फैक्टर को खूब महत्व दिया जा रहा है.
कलाटे के कारण चिंचवड में भाजपा जीती और कसबा में 'कलाटे' फैक्टर न होने के कारण (न- कलाटे के कारण) भाजपा हार गई. इस मुद्दे पर भरपूर चर्चा होते हुए दिख रही है.
*संघ- भाजपा को पराभूत करने के लिए ऐसे कितने "न- कलाटे" पर कबतक उलझे रहेंगे?*
*फुले आंबेडकरवादी के रूप में व मार्क्सवादी- समाजवादी के रूप में कभी अपना खुद का अस्तित्व दिखायेंगे कि नहीं?*
वंचित बहुजन आघाडी को केवल कांग्रेस- राष्ट्रवादी को पराभूत करना है इसके लिए वह भी "कलाटे" फैक्टर का ही आधार लेती है, पार्टी का खुद का वैचारिक ध्रुवीकरण कहीं भी नहीं है, है भी तो नाते- रिश्तेदारों का भावनात्मक ध्रुवीकरण!
4) 'आनंद दवे' नाम का एक और फैक्टर इस उपचुनाव के विश्लेषण में आता है. ब्राह्मणों के एकाधिकार वाला कसबा विधानसभा क्षेत्र ओबीसी को दे दिया गया, इसका गुस्सा मन में लेकर ब्राह्मण महासभा के नेता आनंद दवे चुनाव में खड़े हुए. अर्थात दवे के पीछे कोई वैचारिक भूमिका नहीं थी जाति की भूमिका लेकर दवे मैदान में उतरे. कुछ पुरोगामियों को ऐसा लगता था कि 'आनंद दवे ब्राह्मणों का वोट खाकर भाजपा को पराभूत करने में उपयोगी सिद्ध होंगे.' ब्राह्मण ये ब्राह्मण जाति के आनंद दवे को वोट देकर ब्राह्मणी विचारधारा की पार्टी भाजपा को पराभूत करेंगे. ऐसा विचार करने वाले मूर्ख पुरोगामियों का वैचारिक दिवाला ही निकला हुआ है. चुनाव में विचारों को नगण्य समझकर केवल जाति के नाम पर वोट देने की मूर्खता मराठा, माली से लेकर दलित- आदिवासी तक सभी जातियाँ करती रहती हैं.
*दवे यदि मराठा- माली या दलित- आदिवासी वगैरह होते तो शायद चुनाव में रंग भरा होता. किंतु दवे ऐसी जाति का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जो प्रसंग देखकर अपना वोट व कृति भी बदलती है.*
*देश में ब्राह्मण ऐसी एकमात्र जाति है जो "जाति का फैक्टर कब कहाँ आगे करना है व विचारों का फैक्टर कहाँ और कैसे आगे करना है." इसका ध्यान रखती है.*
*ब्राह्मण ये राजनीति में 'अब्राह्मण' जाति को आगे करके सत्ता पर कब्जा करते हैं और इस सत्ता का उपयोग केवल ब्राह्मण जाति के हित के लिए कैसे हो सकता है इसका ध्यान रखते हैं.*
*सत्ता पाने के लिए राजनीति में " हम सब हिन्दू " यह भूमिका ब्राह्मण लेते हैं और सत्ता मिलने के बाद "हम सिर्फ ब्राह्मण व तुम सब शूद्र ही" ऐसी भूमिका लेते हैं.*
*दिल्ली में मोदी को आगे करके व महाराष्ट्र में शिंदे को आगे करके सत्ता प्राप्त करना व इस सत्ता का उपयोग करके ब्राह्मण हित का कार्यक्रम लागू करना!*
*ओबीसी आरक्षण को संकट में डालकर सुदामा (10%) आरक्षण को मजबूत करना.*
*दलित- ओबीसी- आदिवासी आदि को बजट में नगण्य करना व अडानी- अंबानी को मजबूत करना, भिड़े भट जी जैसे दंगाइयों व दाभोलकर- पानसरे के हत्यारों को संरक्षण देना, भीमा कोरेगांव जैसे दंगे करवाना और ऐसे ही अनेकों ब्राह्मण हित के कार्यक्रम सतत क्रियान्वित करते रहना.*
*राजनीति में 'जाति पीछे रखकर' विचारों को महत्व देने वाली व सत्ता नीति में 'विचार पीछे करके' जाति को महत्व देने वाली ब्राह्मण जाति आनंद दवे की तो जमानत जब्त करायेगी ही इसमें आश्चर्य कैसा?*
5) कसबा उपचुनाव के निमित्त ओबीसी फैक्टर ज्यादा ही उभरकर आया है.
पिछले तीस सालों से ब्राह्मणों के एकाधिकार वाला यह किला अभी ही अचानक ओबीसी के हवाले क्यों किया गया? इस पर विचार होना चाहिए.
कांग्रेस व भाजपा इन दोनों प्रस्थापित पार्टियों द्वारा ओबीसी उम्मीदवार देना, यह चमत्कार अचानक ही नहीं घटित हुआ.
*राजनीति में कोई भी कभी कुछ भी फुकट में नहीं देता, कसबा विधानसभा क्षेत्र में ओबीसी मतदाताओं की बहुलता है.*
किंतु जबतक ओबीसी ब्राह्मणों के प्रभाव में था तबतक कसबा के मुट्ठीभर ब्राह्मण वाले क्षेत्र में ब्राह्मण उम्मीदवार चुनकर आता था.
*किंतु बीते कई वर्षों से ओबीसी आंदोलन के जोर पकड़ने के कारण जनजागृति बढ़ रही है. जागृत हुआ 52% ओबीसी वोटबैंक कैश करने के लिए ओबीसी बहुल कसबा विधानसभा क्षेत्र में दोनों प्रमुख पार्टियों ने ओबीसी उम्मीदवार दिया.*
*6) गली मुहल्ले में छोटेमोटे कार्यकर्ता अपनी जेब से पैसा डालकर ओबीसी आंदोलन चलाते हैं. जिससे जनजागृति होती है किन्तु इस जनजागृति को ओबीसी उम्मीदवार देकर कांग्रेस- भाजपा कैश कराती रहती हैं, यह कसबा उपचुनाव से सिद्ध होता है. ऐसे समय में ओबीसी आंदोलन का एकाध कार्यकर्ता को चुनाव में खड़े होना चाहिए.*
*चुनाव जनजागृति का बड़ा माध्यम ही है यह हमें बाबा साहेब अंबेडकर बताते हैं.*
*चुनाव केवल जीतने के लिए ही नहीं लड़े जाते बल्कि अपने विचार व अपने मुद्दे जनता तक ज्यादा ताकत और ज्यादा प्रभावी रूप से ले जाने के लिए चुनाव लड़ना होता है.*
उसी तरह कार्यकर्ता द्वारा किया गये काम का जनता पर कितना असर हुआ है इसका आकलन भी चुनाव में मिले वोटों के ५ जनवरी 2023 को सपना माळी के उपोषण मंडप में बोलते हुए मैंने आह्वान किया कि, 'पुणे के दोनों उपचुनावों में स्वतंत्र रूप से ओबीसी आंदोलन का उम्मीदवार खड़ा करना चाहिए एवं केवल ओबीसी जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर यह चुनाव लड़ना चाहिए.
*कार्यकर्ता भूखे रहकर भी काम करें और उस काम की मलाई प्रस्थापित पार्टियां उड़ा ले जायं यह धंधा अब बंद होना चाहिए.*
*'प्रस्थापित पार्टियां ऐसे ओबीसी व्यक्ति को टिकट देती हैं जो गुलाम है, ऐसे ओबीसी* *उम्मीदवार विधायक बनने के बाद ब्राह्मण- मराठा की ही दलाली करते हैं, ओबीसी जनगणना के लिए विधानसभा में कभी नहीं लड़ते.*
*इस उपचुनाव में 'स्वतंत्र ओबीसी' उम्मीदवार खड़ा करके ओबीसी जाति आधारित जनगणना का मुद्दा घर घर पहुंचाया जा सकता था.*
7) हमेशा की तरह ही वंचित बहुजन आघाडी ने इस चुनाव में भी अपनी भूमिका निभाई. जिसके कारण हमेशा की तरह ही उस पर वही आरोप लगे. चिंचवड में भाजपा को जिताने के लिए वंचित बहुजन आघाडी ने पैसे लिए वगैरह आरोप निम्न स्तर पर किए गए.
चिंचवड में यदि पैसे लेकर भाजपा को जिताना होता तो कसबा में भी वंचित बहुजन आघाडी को पैसे देकर उम्मीदवार खड़ा करने को कहा गया होता किंतु वैसा नहीं हुआ.
*इसलिए वंचित बहुजन आघाडी पर लगाए गए आरोप निराधार हैं. जाति धर्म के समाज में अपना अस्तित्व सिद्ध करने के लिए स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ना होता है, और वह लोकतंत्र में दिया गया अधिकार है.*
लोकतंत्र का मंतव्य यही है कि तुम्हारा स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने के लिए उसका वैचारिक आधार होना चाहिए. केवल जाति धर्म के आधार पर चुनाव लड़ना लड़ना लोकतंत्र के लिए मारक है.
बिहार में ओबीसी जनता ने अपनी राजनीतिक पार्टी स्थापित करके अस्तित्व सिद्ध किया. किंतु उसके लिए उन्होंने 'लोहिया वादी - समाजवादी' विचारधारा स्वीकारा. तमिलनाडु में ओबीसी ने अपनी राजनीतिक पार्टी स्थापित करके अपना अस्तित्व सिद्ध किया किंतु उसके लिए उन्होंने 'फुले वादी - अब्राह्मणी विचारधारा को स्वीकार किया.
संघ- भाजपा के ब्राह्मणों ने अपनी ब्राह्मणी राजनीतिक पार्टी स्थापित किया किंतु उसके लिए उन्होंने 'हिन्दुत्व की विचारधारा' को स्वीकार किया.
*विचारधारा के आधार पर जाति अंतक पार्टी स्थापित करके मा. कांशीराम, पासवान, आठवले, महादेव जानकर व प्रकाश आंबेडकर जैसे नेता अपयशी सिद्ध हुए क्योंकि वे स्वीकार की हुई विचारधारा पर डगमगाते रहे.*
*एक पैर आंबेडकरवाद पर तो दूसरा पैर संघ-भाजपा के ब्राह्मणवाद पर, ऐसी उनकी स्थिति थी और आज भी है.*
बिहार, उप्र व तमिलनाडु के ओबीसी ने विचारधारा के आधार पर कृति कार्यक्रम भी चलाया. मंडल आयोग, राममंदिर विरोध, अब्राह्मणी सांस्कृतिक राजनीति,
आरक्षण का विस्तारीकरण एवं ऐसे ही वैचारिक कृति- कार्यक्रम वहाँ के ओबीसी ने चलाया इसलिए वे आज भी संघ- भाजपा के सामने स्वाभिमान से खड़े होकर चुनौती दे रहे हैं.
आंबेडकरवाद पर आधारित ऐसा एक भी कृति - कार्यक्रम मा.कांशीराम, पासवान, आठवले, जानकर व प्रकाश आंबेडकर ने नहीं चलाया. इसलिए ये पार्टियां संघ-भाजपा के शरण में गई हुई दिख रही हैं.
*इस चुनाव से उस चुनाव तक, यही एकमेव इनका कृति- कार्यक्रम!*
*इसलिए ये पार्टियां खुद को आंबेडकरवादी कहलवाने के बावजूद वे प्रत्यक्ष 'जातीय' पार्टियों के रूप में अपनी भूमिका निभाती हैं एवं संघ- भाजपा को जीवन दान देती हैं.*
देशभर के ओबीसी संगठन 'जाति आधारित जनगणना का कृति- कार्यक्रम लेकर आंदोलित हैं.
जाति आधारित जनगणना मतलब जाति अंत की पहली सीढ़ी है! जाति नष्ट करना है तो उसके लिए जातियों का डेटा आवश्यक ही होता है.
आज जातियों का डेटा किसी भी प्रगतिशील आंदोलन के पास नहीं है और फिर भी वे जाति नष्ट करने की बात प्रगतिशील- वामपंथी वगैरह करते रहते हैं.
*ओबीसी के नेतृत्व में चल रहे 'जाति आधारित जनगणना' आंदोलन में सभी फुले- आंबेडकरवादी, मार्क्सवादी- समाजवादी आदि पुरोगामियों को शामिल होना चाहिए. उसमें से बिहार, उप्र व तमिलनाडु की तरह ओबीसी के नेतृत्व में वैकल्पिक राजनीतिक दल खड़ा किया जा सकेगा.*
*राष्ट्र स्तर पर ब्राह्मणी- अब्राह्मणी ध्रुवीकरण को गतिशील करके ओबीसी नेतृत्व की पार्टी देश की सत्ता पर कब्जा कर सकती है और जाति अंतक, वर्ग अंतक कृति- कार्यक्रम लागू किया जा सकता है. यही महत्वपूर्ण बोधामृत चिंचवड- कसबा उपचुनाव हमें देता है. यह बोधामृत आपके मुंह में (दिमाग में) जल्दी पड़े ऐसी अपेक्षा करते हुए सभी को जय ज्योति, जयभीम व सत्य की जय हो!
लेखक - प्रो.श्रावण देवरे
मराठी से हिंदी अनुवाद - चन्द्र भान पाल